कुटरी
कुट़री मात्र तीन वर्ष की थी जब उसके माता-पिता का केदारनाथ अपादा में देहांत हो गया था। कुट़री बिल्कुल अनाथ हो गई थी। एैसे समय में उसका लालन-पालन उसके मामा पूरणचन्द और मामी अनुराधा कर रहे थे।
(कुट़री शब्द गढ़वाली भाषा में पोटली को कहते हैं। पूर्वकाल में लोग बर्तनों के अभाव के कारण अनाज को कपडो़ में बांधते थे। जिस कारण वह पोटली गोल-मटोल हो जाती थी। इसलिये उसे कुट़री कहते थे। कुट़री भी बिल्कुल एैसे ही थी, गोल-मटोल, सुन्दर गुड़िया सी।)
पहाडो़ पर मौसम अक्सर ठंडा ही रहता है। इसी कारण कुट़री के गाल सर्दी से हल्के गुलाबी और हल्के खुरदरे से रहते थे। कुट़री को अनाथ हुये एक वर्ष बीत चुका था। कुट़री को अपने माँ बाबा के देहान्त का कुछ भी पता नहीं था। उसके माँ बाबा कारोबार के सिलसिले में ही केदारनाथ गये थे। जाते समय उन्होंने कुट़री को मामा पूरणचन्द के पास ननिहाल छोड़ आये थे। मां तो मां ही होती है, फिर चाहे मामी कितना भी लाड़-दुलार कर ले, मां जैसा स्नेह नहीं दे पायेगी। दिन भी धीरे-धीरे बीत रहे थे। मामा-मामी कुट़री की खूब देखभाल करते थे। कुट़री रोज अपने ममेरे भाई निक्की को ‘‘ट्विंकिल- ट्विंकिल लिटिल स्टार……..’’ जैसी काफी कवितायें गुनगुनाते हुये सुनती रहती थी। उसकी भी इच्छा हुई कि वह भी निक्की की तरह ये सब गुनगुनाये। निक्की थोडा़ शैतान एवं उग्र स्वभाव का था। कुट़री के आने से उसके मन में ईर्ष्या के भाव पैदा हो गये थे, क्योंकि उससे ज्यादा स्नेह कुट़री को मिल रहा था।
रोज की तरह मामा पूरणचन्द दुकान से घर आये तो कुट़री ने मामा के कुर्ते का पल्लू पकड़कर अपनी जिज्ञासा व्यक्त की-
” मामाजी मुझे भी निक्की भैया की तरह वह गीत सिखा दो जो वह रोज गाता है। ”
मामा पूरणचन्द ने हल्की सी मुस्कान भरते हुये कुट़री को गोद में उठाया और उसके गालों को चूमते हुये बोले- “जरूर जरूर मेरी कुट़री तुझे मैं सब कुछ सिखाऊंगा, बस तू जल्दी से बडी़ होजा।”
मामा ने कुट़री को गोदी से उतारा, आज कुट़री फूले नहीं समा रही थी। यह सब देखते हुऐ मामा को बहुत खुशी हुई। कुट़री ने पानी का छोटा सा डब्बा पकडा़ और पानी लेने धारे (पहाडों में प्राकृतिक रूप से निकलता जल का श्रोत) की ओर चल पडी़। मामा एकटक लगाये कुट़री के इस चुलबुलेपन को निहार रहे थे। मन ही मन स्वयं से पूछ रहे थे, – “क्या होगा इस लड़की का ”
इधर कुट़री रोज बच्चों को स्कूल जाते देखती और कल्पना करती कि क्या कभी वह भी स्कूल जा पायेगी? उसके कन्धों में भी बैग होगा, वह भी नई ड्रेस पहनेगी, ये सब सपने बुनकर कुट़री अपने ख्यालों में खोई रहती थी। चार वर्ष की कुट़री की जिज्ञासा चैदह वर्षों के बच्चों जैसी थी। कुट़री पढ़ना चाहती थी। अपनी मामी को देख कर कुट़री घर के हल्के-फुल्के काम कर लेती थी। धीरे-धीरे कुट़री समझदार होती जा रही थी।
समयचक्र चलता रहा। एक दिन कुट़री ने निक्की के शब्दों पर गौर किया। वह कुछ भी करता या किसी चीज की जरूरत पड़ती थी तो ‘‘मां-बाबा’’ कहकर मामा-मामी को पुकारता। कुट़री किसे ‘‘मां-बाबा’’ कहे? अचानक कुट़री को अपने माँ बाबा की याद आई। आखिर मामा के पास छोड़ जाने के बाद वह अभी तक क्यों नहीं आये? अपने मुंह से ‘‘मां-बाबा’’ कहे उसे 15-16 माह बीत चुके थे। आखिर कहां हैं वह अभी तक?
बच्चा एक वर्ष का हो या 18-20 वर्ष का माता-पिता के बिना नहीं रह सकता। ननिहाल में मामा-मामी का भरपूर स्नेह तो मिल ही रहा था, लेकिन वह स्नेह नहीं था जो मां-बाबा के साथ रहकर मिलता था।
मामा-मामी भी कुट़री को बहुत प्रेम करते, क्योंकि उन्हें पता है कि उनके अलावा कुट़री का कोई भी नहीं है। आज उदासी भरा चेहरा लेकर कुट़री घर के पास बगीचे में काम कर रही मामी के पास गई।
मामी के कन्धे पर हाथ रखकर कुट़री ने पूछा- ” मामी जी मेरे
मां-बाबा कब आयेंगे ? ” मामी सुनते ही एकदम घबरा गई। चार वर्ष की मासूम सी कुट़री की आंशुओं से भरी लाल आंखें देखकर मामी का हृदय पिघल गया। करूण स्वर में मामी ने कुट़री का हाथ पकड़ते हुये दिलासा दी कि – ” बेटी तू चिन्ता मत कर वो जल्दी से अपनी कुट़री के पास आयेंगे ” ।
इतने महीनों में पहली बार कुट़री को अपने मां-बाबा की याद आई। इस बात को लेकर आज कुट़री पूरे दिनभर चिन्तित रही। शाम को पूरणचन्द दुकान से घर आये तो पत्नी अनुराधा ने दिन की घटना बता दी। पूरणचन्द पहले ही कुट़री के भविष्य को लेकर चिन्तित थे। इस बात ने उनके दिमाग में अतिरिक्त तनाव भर दिया। कुट़री को अगर सच्चाई बताई तो कुट़री पर क्या बीतेगी? और नहीं बताई तो वह रोज अपने मां-बाबा के बारे में पूछती रहेगी और इन्तजार करती रहेगी।
पूरणचन्द (मामा) ने बहुत विचार विमर्श कर निर्णय लिया कि कल सुबह दुकान जाने से पूर्व वह कुट़री को सब कुछ सच्चाई बता देंगे। सुबह घिंडड़ियों (गौरेया) की चहचहाहट सुन कुट़री की नींद खुली।
उठते ही रसोई में जाकर लकडी़ की चौकी में बैठकर आग सेकने लगी। मामी ने बिना कुछ कहे कुट़री को चाय पकडा़ई। कुट़री चाय की बहुत शौकीन है। घर के काम निपटाने के बाद पूरणचन्द पत्नी सहित कुट़री को लेकर एकान्त में बैठ गये। मामा पूरणचन्द स्नेह भरे हाथों से कुट़री के सिर को सहला रहे थे। पूरणचन्द ने हिचकिचाते हुये, दबे स्वर में कुट़री से पूछा- ” बेटा तुझे अपने मां-बाबा की याद तो नहीं आ रही है ?” कुट़री ने मामा की तरफ देखते ही एक सेकेण्ड में 2-3 बार पलके झपकाकर हां में गर्दन हिला दी।
पूरणचन्द हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे, कुट़री के मासूम से चेहरे को देखकर आखिर उसे सच्चाई बतायें तो बतायें कैसे?
एकाएक पत्नी अनुराधा की तरफ देखकर, बढ़ती धड़कनों के साथ उन्हाेने भावुक होकर एक ही स्वर में कह दिया- ‘‘ बेटा तेरे मां-बाबा गुजर गये हैं, वो अब कभी नहीं आयेंगे ” ।
ऐसा सुनते ही मानो पूरी धरा कुट़री के साथ-साथ स्तब्ध हो गई। कुट़री ने मामा की तरफ देखते-देखते लाल आंखों से आंशुओं की बौछार कर दी। उस नन्हीं सी कुटरी की अश्रुधारा इतनी गहरी थी कि आप कल्पना कर सकते हो कि उसके इस विरह में प्रकृति भी शामिल हो। सकपकाते हुये कुट़री अपने मामा के हृदय से लिपट गई। थोडी देर लिपटे रहने के बाद कुट़री स्वयं को छुडा़ते हुये कमरे की तरफ दौड़ पडी़।
मामा मामी भी कुट़री की इस हालत को देखते हुये उसके पीछे-पीछे कमरे में पहुंच गये। कुट़री एक कोने में सिर झुकाये रोई जा रही थी। निक्की भी दरवाजे के पास खडा़ होकर यह सब देख रहा था। आज कुट़री के विरह को देखकर उसे समझ आ गया कि मां-बाबा कुट़री को इतना प्यार क्यों करते हैं? पूरणचन्द कुट़री को समझाने का पूरा प्रयत्न कर रहे थे – ” देख बेटा घबराने की कोई बात नहीं है, हम हैं न तेरे साथ, हम भी तो तेरे मां-बाबा जैसे ही हैं ” ।
कुट़री चुपचाप होकर सुनती जा रही थी। लेकिन उसका पूरा ध्यान मां-बाबा की छवियों में था। कुट़री को ननिहाल में छोड़ने के बाद किसी को इस बात का अंदाजा भी नहीं था कि कुट़री दोबारा अपने मां-बाबा के पास जा भी पायेगी या नहीं। पूरा दिन ऐसे ही गुजर गया। आज कुट़री ने न चाय पी और न ही ढंग से खाना खाया। दिनभर छज्जे में बैठकर कुट़री अपने मां बाबा के संग बिताये लम्हों को याद करती। एक-एक छण उसके विरह को बढा़ता जा रहा था।
कुट़री अपनी मां से ज्यादा बाबा के करीब थी। बाबा के घुग्गु (कन्धे) में बैठकर पूरे गांव में घूमकर आना, एैसी ही कई स्मृतियों उसकी आंखों के सामने घूमती रहती थी। लाख कोशिश करने के बाद मामा पूरणचन्द कुछ दिन बाद कुट़री को खुश करने के लिये बाजार से उसके लिये काफी- पेन्सिल एवं अ, आ, इ, ई……वर्णमाला वाली पुस्तक ले आये। पूरणचन्द जानते थे कि कुट़री को पढा़ई में रूचि है और रंगबिरंगें चित्रों से सजी किताबें ही उसे मां-बाबा के शोक से बाहर निकाल सकती है। कुटरी के चेहरे पर अब मुस्कान आई ।
धीरे-धीरे समय के साथ निक्की भी कुट़री के साथ खूब खेलता, उसका हाथ पकड़कर गांव में घुमाता। अपनी किताबों में बने चित्रों को कुट़री को दिखाता। निक्की की संगति पाकर कुट़री कुछ-कुछ कवितायें घर में ही सीख गई थी। प्राथमिक विद्यालय में नया सत्र प्रारम्भ हो चुका था। आज पूरणचन्द कुट़री का दाखिला करवाकर उसके लिये स्कूल ड्रेस एवं बस्ता (बैग) ले आये। कुट़री की खुशी का ठिकाना न रहा, पूरे आंगन में कन्धे में बैग लटकाये दौड़ रही थी। रात में खाना खाकर कुट़री बैग को अपने साथ रखकर सो गई।
सुबह उठकर मामी ने निक्की और कुट़री को गर्म पानी से नहलाकर नाश्ता करवाया और फिर विद्यालयी परिवेश में तैयार किया। भूरे रंग की झगुली (स्कर्ट) और चैक रंग की कमीज और लाल रंग के रिब्बनों से सजी हुई दो चुटिया में कुट़री बहुत बिगरैली (प्यारी) लग रही थी। पूरणचन्द ने कुट़री के छोटे-छोटे पैरों में जूते पहनाये।
अब बारी थी विद्यालय जाने की। कुट़री ने कन्धे में बस्ता लटकाकर मामा-मामी को प्रणाम किया। मामा पूरणचन्द तथा निक्की का हाथ पकडे़ कुट़री विद्यालय पहुंची। नये पुराने बच्चे सब कुट़री को एकटक लगाए देखे जा रहे थे।
आज से कुट़री ने अपने सपनों की उडा़न भरी है। मित्रों हमारे समाज में न जाने कितनी ही ऐसी कुटरियां हैं जो पढ़ना चाहती है। अपने सपनों को साकार करना चाहती हैं। लेकिन सिर पर मां-बाप का साया नहीं है। ऐसे समय में पूरणचन्द बनकर आगे आयें, एवं जीने की नई उम्मीद दिखायें। हमारी कोशिश यह रहे कि कोई भी बच्चा भीख मांगने को मजबूर न हों।
©® – अमित नैथानी ‘मिट्ठू’