कुछ ख़त मोहब्बत के
प्रिय (अज्ञात)
कुछ ख़त मोहब्बत के
लिखे तो थे तुम्हें मगर
लिखकर फाड़ दिए।
मन में इक अनजाना सा भय
यही की तुम क्या सोचोगे
मेरे व्यक्तित्व के बारें में?
कहीं गलत न समझ बैठो
उँगली न उठा दो मेरे चरित्र पर
डरती थी, हाँ मैं बहुत डरती थी।
तुमने तो कभी कुछ कहा नही
मेरा ही दिल अकेले धड़कता रहा
जान ही न पाई तुम क्या चाहते हो?
मैं तुम्हें पसंद करती थी
पर तुम्हारे दिल की कोई थाह न थी
पूछती कैसे लाज आती थी।
ख़त ही एक सरल तरीका था
मन की सारी कोमल भावनाएँ लिख दी थी
वो सब जो कभी कह न सकी।
रोज तुमसे मिलकर जब घर आती
एक ख़त रोज लिखती थी
सोचती कल तुम्हें दे दूँगी।
वो कल कभी न आया जीवन में
तुम कहीं चले गये,मैं कहीं बस गई
वो लिखे ख़त,याद की तरह रह गये।
जीवन में किसी ओर की दस्तक हुई
सब कुछ बदल गया
इच्छाएँ, सोच और पूरा जीवन भी।
अब उन ख़तों को छुपाना मुश्किल था
कोई देख न ले, कोई बाँच न ले
पल-पल,हरपल एक डर सताता था।
ऐसा लगता था जैसे कोई गुनाह किया है
और उस गुनाह की लाश को छुपा रही हूँ
अब उन्हें सहेजना, सहज न था।
ख़तों को बार-बार,कई बार पढ़ा
और इस आखिरी ख़त के साथ
उन सारे ख़तों को फाड़ दिया।
हाँ,
कुछ ख़त मोहब्बत के
लिखे तो थे तुम्हें मगर
लिखकर फाड़ दिए।
तुम्हारी जो कभी न हो सकी
(अज्ञात)