कुछ यूँ शुरू हुई श्राद्ध की परंपरा”
“कुछ यूँ शुरू हुई श्राद्ध की परंपरा”
हिंदू धर्म में पितृपक्ष यानी श्राद्ध पक्ष का बहुत महत्व है। इन दिनों पितरों को याद किया जाता है और उनसे आशीर्वाद लिया जाता है। बहुत ही कम लोगों को पता होगा कि दुनिया में सबसे पहले श्राद्ध किसने किया था। महाभारत काल में श्राद्ध के बारे में पता चलता है, जिसमें भीष्म पितामाह ने युधिष्ठिर को श्राद्ध के संबंध में कई बाते बताई हैं। साथ ही यह भी बताया गया है कि श्राद्ध की परंपरा कैसे शुरू हुई और धीरे-धीरे जनमानस तक कैसे यह परंपरा शुरू हुई…
महाभारत के अनुसार, सबसे पहले महातप्सवी अत्रि ने महर्षि निमि को श्राद्ध के बारे में उपदेश दिया था। इसके बाद महर्षि निमि ने श्राद्ध करना शुरू कर दिया। महर्षि को देखकर अन्य श्रृषि मुनियों ने पितरों को अन्न देने लगे। लगातार श्राद्ध का भोजन करते-करते देवता और पितर पूर्ण तृप्त हो गए।लगातार श्राद्ध को भोजन पाने से देवताओं पितरों को अजीर्ण रोग हो गया और इससे उन्हें परेशानी होने लगी। इस परेशानी से निजात पाने के लिए वे ब्रह्माजी के पास गए और अपने कष्ट के बारे में बताया। देवताओं और पितरों की बातें सुनकर उन्होंने बताया कि अग्निदेव आपका कल्याण करेंगे।
शास्त्रों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि हवन में जो पितरों को निमित्त पिंडदान दिया जाता, उसे ब्रह्मराक्षस भी दूषित नहीं करते। इसलिए श्राद्ध में अग्निदेव को देखकर राक्षस भी वहां से चले जाते हैं। अग्नि हर चीज को पवित्र कर देती है। पवित्र खाना मिलने से देवता और पितर प्रसन्न हो जाते हैं।
अग्निदेव ने देवातओं और पितरों को कहा कि अब से श्राद्ध में हम सभी साथ में भोजन किया करेंगे। मेरे पास रहने से आपका अजीर्ण भी दूर हो जाएगा। यह सुनकर प्रसन्न हो गए। इसके बाद से ही सबसे पहले श्राद्ध का भोजन पहले अग्निदेव को दिया जाता है, उसके बाद ही देवताओं और पितरों को दिया जाता है।
पिंडदान सबसे पहले पिता को, उनके बाद दादा को और उनके बाद परदादा को देना चाहिए। शास्त्रों में यही श्राद्ध की विधि बताई गई है। जिसका भी पिंडदान आप दे रहे हैं, उस समय एकाग्रचित्त होकर गायत्री मंत्र का जप तथा सोमाय पितृमते स्वाहा का जप करें।
महाभारत के अनुसार, श्राद्ध में तीन पिंडों का विधान है। पहले पिंड जल में दें, दूसरा पिंड को पत्नी गुरुजनों को दें और तीसरा पिंड अग्नि को दें। इससे मनुष्य की समी कामनाएं पूर्ण होती हैं। पितृ पक्ष यानी श्राद्ध पक्ष हर साल भाद्रपद की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से लेकर अश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या तक रहते हैं।
पितृ पक्ष में २१ सितंबर से शुरू हो चुके हैं और ६ अक्टूबर तक चलेंगे। इन दिनों पितरों को याद कर श्राद्ध कर्म और पूजा-पाठ किया जाता है। पितृपक्ष के समय परलोक गई आत्मा धरती पर लौटकर आती है इसलिए लोग शुभ काम और खरीदारी नहीं करते हैं क्योंकि यह समय शोकाकुल होता है। जबकि शास्त्रों और पुराणों में कहीं भी जिक्र नहीं है कि पितृ पक्ष का समय अशुभ होता है, यह केवल आम धारणा बनी हुई है। फिर भी १६ दिनों तक चलने वाले इन दिनों में ज्यादातर यही परम्परा मान्य हैं कि कोई भी खरीदारी नही की जाती।
श्राद्ध पक्ष में पितर पृथ्वी पर अपने परिवार के यहां आते हैं और उनको सुख-समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं। प्राचीन काल से ही पितृ पक्ष को लोक-परलोक और आत्मा-परमात्मा के बीच संतुलन बनाने के समय के रूप में जाना जाता था। पितृ पक्ष में अगर कोई नया काम शुरू करते हैं या खरीदारी करते हैं तो इससे पितर नाराज नहीं होते और न किसी चीज में प्रेत का अंश होता है। बल्कि इससे वह खुश होते हैं कि उनके परिवार वाले तरक्की कर रहे हैं। परेशानी केवल तब आती है कि इन भौतिक साधनों के पीछे पितरों का ध्यान और उनका आदर करना छोड़ देते हैं। कुछ भी खरीदते समय अपने पितरों का धन्यवाद जरूर करें।
“आओ आज श्राद्ध मनाएंगे
अपने पुरखों को तृप्ति दिलाएंगे
उन तक अपना नेह पहुचायेंगे
आशीष सदा बना रहे आशीष पाएंगे”।
डॉ मंजु सैनी
गाज़ियाबाद