*** कुछ पल अपनों के साथ….! ***
“” चल चाचा जी…
कुछ पल यहां गुजार लें…..!
कदम-कदम पर उलझनों के फेरे हैं,
ऊल-जलूल बातों से घिरे हम मिट्टी के ढेर हैं ;
शायद..! ये कल,रहे या न रहे…
तेरे-मेरे, अपने-पराये से उलझी,
ये जिंदगी को हम संवार लें…!
प्रगति के घेरों में हम…
रिश्ते-नाते तोड़ गए हैं…!
मैं सही, तू गलत के फेर में…
प्रेम की बस्ती छोड़ गए हैं…!
वैज्ञानिक प्रगति ने…
जंगल में आग लगाया है…!
पश्चिमी सभ्यता ने…
बिकनी का रोग फैलाया है…! “”
“” चल चाचा जी…
कुछ पल यहां गुजार लें…!
अकेलेपन का रोग..
हम सब पर भारी है…!
घर-परिवार, गांव-गली और चौक-चौराहे…
मय-मदिरा की अनबुझ चिंगारी है..!
बिन अपने, ये जहां…
न तेरे काम का, न मेरे काम का…!
जिंदगी में अपनापन…
हर कोई दिखाता है यहां..!
मगर…! कौन अपना, कुछ पल…
अपनों के संग बिताता है यहां…!
अपनों के संग से..
बड़े-बड़े जंग भी जीते जाते हैं…!
और अपनों के संग छुट जाने से…
अपनी राजमहल भी,
खंडहर सी नजर आते हैं…!
अपनों के चने पकोड़े…
मेवा-मिष्ठान की स्वाद दे जाता है..!
अपनों के, सर पर हाथ का फेरा…
अनमोल आयुर्वेद संजीव बन जाता है..!
गली-गली में भरे पड़े हैं…
कुछ कालू मुल्जिम सरदार..!
विवादों से घिरे हुए हैं आज…
अनेक घर परिवार…!
तुम मर जाओ, मिट जाओ…
किसी भाई को आज, कोई नहीं सरोकार..!
पलायन वेग से चलती…
ये अपनी जिंदगी की रफ्तार…!
कौन जानता है, कौन मानता…?
वो पुनर्जन्म की बात…!
किसे पता है…?
हमें फिर मिलेंगे, मानव रूप अवतार…!! “”
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