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16 Oct 2022 · 1 min read

कुछ पन्ने बेवज़ह हीं आँखों के आगे खुल जाते हैं।

कुछ पन्ने बेवज़ह हीं आँखों के आगे खुल जाते हैं,
स्याही से उभरे, उन अल्फ़ाज़ों को हम बेमकसद सा पढ़ जाते हैं।
जैसे कुछ बादल, बिना बरसे भी मौसम का रूख मोड़ जाते हैं,
वैसे हीं कुछ ख़त, बिना खुले हीं अपनी खुशबू से यादों को खींच लाते हैं।
उस कारवां को देख, जाने कितने हीं मुसाफ़िर उसमें आ शामिल हो जाते हैं,
और फिर मंज़िलों को पाकर, एक बार फिर उसे तन्हा कर जाते हैं।
ये बारिश जो हमेशा, दरख्तों की प्यास बुझाते हैं,
अपनी बूंदों के साथ, कितने आंसुओं का भी तो अस्तित्व छुपाते हैं।
लहरों का साथ पाकर, कश्तियाँ साहिलों से आकर मिल जाते हैं,
और कभी यही लहरें बवंडर का रूप धर, इनका स्वरुप समाप्त कर जाते हैं।
इन सितारों को देखो, जो घनी रात में निःस्वार्थ होकर हमारा साथ निभाते हैं,
फिर सुबह का दामन थाम, हम उसे भी रात के साये में छोड़ आते हैं।
जिस कस्तूरी को मृग, अपनी हीं नाभि में, छुपाये जिये जाते हैं,
उसकी तलाश में वो, सारी उम्र भटकते हुए गंवाते हैं।
कहते हैं, कोई साथ छोड़, हमसे हमारा प्रेम छीन ले जाते हैं,
परन्तु वो हमारा प्रेम हीं तो है, जो स्वरुप बदल हमारे समक्ष आ मुस्कुराते हैं।

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