कुछ दोहे…
फँसी भंवर में जिंदगी, हुए ठहाके मौन ।
दरवाजों पर बेबशी, टांग रहा है कौन ।।
इस मायावी जगत में, सीखा उसने ज्ञान ।
बिना किये लटका गया, कंधे पर अहसान ।।
महानगर या गाँव हो, एक सरीखे लोग ।
परम्पराएँ भूल कर, भोग रहे है भोग ।।
किस से अपना दुःख कहें, कलियाँ लहूलुहान ।
माली सोया बाग़ में, अपनी चादर तान ।।
कपट भरें हैं आदमी, विष से भरी बयार ।
कितने मुश्किल हो गए, जीवन के दिन चार ।।
खो बैठा है आदमी, रिश्तों की पहचान ।
जिस दिन से मँहगे हुए, गेंहूँ, मकई, धान ।।
खुशियाँ मिली न हाट में, खाली मिली दुकान ।
हानि लाभ के जोड़ में उलझ रहे दिनमान ।।
— त्रिलोक सिंह ठकुरेला