‘कुछ घाव’
कुछ घाव ऐसे होते हैं!
बाहर से अदृष्ट होते हैं,
पर भीतर छुपे होते हैं।
झूठ का मलहम लगाकर ,
हम उन्हें लुकोते हैं।
भरते नहीं जिन्दगी भर,
भार उनका हंसके ढोते हैं।
कुछ घाव ऐसे होते हैं,
संग जगते-सोते हैं।
कुछ घाव ऐसे होते हैं!
बाहर से अदृष्ट होते हैं,
पर भीतर छुपे होते हैं।
झूठ का मलहम लगाकर ,
हम उन्हें लुकोते हैं।
भरते नहीं जिन्दगी भर,
भार उनका हंसके ढोते हैं।
कुछ घाव ऐसे होते हैं,
संग जगते-सोते हैं।