कुछ ख़त मोहब्बत के , दोहा गीत व दोहे
१-#दोहा_गीत
चन्द्रबदन मृगलोचनी, चपला रूप अनूप |(मुखड़ा)
सुरभित गुंजन कंठ है , लगे गुनगुनी धूप ||(टेक)
पग पायल है नाचती , निकसत है झंकार |(अंतरा)
कटि करधोनी खिल रही, लगती हँसत फुहार ||
नथनी उसकी नासिका , खिले गगन में चंद |
तिल होंठों पर देखकर , बनते कवि के छंद ||
गड्ढे गालों पर पड़े , शरमाता है रूप |(पूरक)
सुरभित ——————————————–||
मोती लगते नेत्र है , काजल कोर कमाल |
माथे बेंदी झूलती , बिदिया करे धमाल ||
अधर किनारे प्रेम के , रस की लगते खान |
नयनो पर भौहें तनी , जैसे चढ़ी कमान ||
झुमके झूले कर्ण पर , ज्यों झूले पर भूप |
सुरभित ——————————————-||
निकले वचन सुभाष है , लगते मदिरा पान |
केश घटा घनघोर है , ग्रीवा रजत समान ||
कोमल किसलय हस्त है ,दंत धवल नग नूर |
चहक रही है चूड़ियाँ, राग वहे भरपूर ||
नचती नागिन सी चले , अनुपम धरें स्वरूप |
सुरभित———————————————–||
सुभाष सिंघई ,जतारा टीकमगढ़ म०प्र०
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२-दोहा छंद में गीत –
कमर लचकती देखकर , आता है भूचाल |(मुखड़ा)
गोरी की पग चाल भी , करती खूब कमाल ||(टेक)
तीखे गोरी नैन हैं , पूरे लगें कटार |(अंतरा)
घायल हैं सब देखकर , नहीं कोई उपचार ||
डाक्टर और हकीम हैं ,गोरी के मधु बोल |
क्रय करने यदि बैठते, हैं सोने की तोल ||
गोरी की चूड़ी बजे, लोग मिलाते ताल |(पूरक)
गोरी की पग चाल भी , करती खूब कमाल ||(टेक)
गोरी की हर सांस से , उड़ती मधुर सुगंध |(मुखडा)
शीतल मंद समीर है , साथ लिए मकरंद ||
चंदा भी शर्मा रहा , गोरी का लख रूप |
ग्रीष्म काल में शीत है , और शीत में धूप ||
लोग घरों से निकलकर, रहें पूँछते हाल ||(पूरक)
गोरी की पग चाल भी, करती खूब कमाल ||(टेक)
गोरी हँसकर पूँछती , कैसे हैं अब हाल |(अंतरा)
उत्तर भी सब दे रहे, तेरी सब पर ढाल ||
समय चक्र चलता रहे , सबके सुंदर गेह |
शेष जिंदगी तक जुड़े, गोरी से बस नेह ||
पूरे गांव में हो गई , गोरी आज ख्याल |(पूरक)
गोरी की पग चाल भी ,करती खूब कमाल ||(टेक)
सृजन -सुभाष सिंघई , जतारा (टीकमगढ़ ) म० प्र०
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३-दोहा छंद में गीत –
हर अक्षर में भर रही, साजन सुनो सुगंध |(मुखड़ा)
पाती लिखकर भेजती , नेह भरा मकरंद ||(टेक)
पाती पाकर पवन भी चला सजन के पास |(अंतरा
विरहा की सांसे लिए ,अपने सँग में खास ||
थोड़े में ही जानिए , साजन मेरा दर्द |
शब्द न मुझको मिल रहे, हुए सिकुड़कर सर्द ||
तुम बिन जग सूना लगे, रोता है आनंद |(पूरक)
पाती लिखकर भेजती , नेह भरा मकरंद ||(टेक)
काजल बहकर गाल पर , रोता है शृंगार | (अंतरा)
सखियां आकर कह रहीं,कहाँ गया भरतार ||
तू क्यों सँवरें रात- दिन , साजन हैं परदेश |
प्रीतम क्या अब आ रहें, धरें भ्रमर परिवेश |
करें इशारा नैन से , सजनी कैसे छंद |(पूरक)
पाती ——————–|| ( टेक)
सब कहते मैं मोरनी , नयन लगे चितचोर |(अंतरा)
चढ़े धनुष पर तीर सी , काजल की है कोर ||
बनी बावरी घूमती , समझ न आती बात |
कब होती अब भोर है , कब होता दिन-रात ||
विरह रूप में लग रही ,पागल हुआ गयंद |{पूरक)
पाती ———— (टेक )
सृजन – सुभाष सिंघई
जतारा (टीकमगढ़) म० प्र०
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#दोहे-
नारी के श्रृंङ्गार में , लज्जा पुष्प सरोज |
आंखों से मानव वहाँ ,करे गुणों की खोज ||
श्रृंङ्गार सदा जानिए, नारी मन का नेह |
देवी के प्रतिरूप से ,मंदिर होता गेह ||
लोग यहाँ नीरस नहीं , है सौलह श्रृंङ्गार |
मन में शीतलता भरें, राधा-कृष्णा प्यार ||
अंग प्रदर्शन चल रहा, श्रृंङ्गारों के नाम |
नहीं समर्थन हम करें ,जहाँ प्रकट हो काम ||
सुंदरता को चाहते , पुरुष वर्ग के नेैन |
पर सुंदरता नाम पर , नहीं वासना सैन ||
नारी के श्रृंङ्गार में , उचित रहें परिधान |
पुरुष वर्ग के देखिए , चेहरे पर मुस्कान ||
उचित रहे श्रृंङ्गार जब ,बढ़ती उसकी शान |
भरी भीड़ भी कर उठे , नारी का गुणगान ||
अभिनंदन चंदन करो, लख सौलह श्रृंङ्गार |
नारी देवी जानिए , संस्कार. अवतार ||
मै सुभाष अर्पण करुँ , कुमकुम हल्दी फूल |
अंग प्रदर्शन नाम की , नारी करे न भूल ||
श्रृंङ्गार के नाम पर जब वल्गर नारी चित्र देखता हूँ -तव मन क्षोभ से भर जाता है , तब श्रृंङ्गार के ऊपर अपना नजरिया पेश कर रहा हूँ कि कुछ संदेश जाऐ कि श्रृंङ्गार क्या है
सृजन – सुभाष सिंघई
एम•ए• हिंदी साहित्य, दर्शन शास्त्र
जतारा (टीकमगढ)म०प्र०
रचनाकार का घोषणा पत्र-
यह मेरी स्वरचित एवं मौलिक रचना है जिसको प्रकाशित करने का कॉपीराइट मेरे पास है और मैं स्वेच्छा से इस रचना को साहित्यपीडिया की इस प्रतियोगिता में सम्मलित कर रहा/रही हूँ।
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सुभाष सिंघई
जतारा (टीकमगढ़) म०प्र०