*कुछ खत मोहोब्बत के *
पैसों के दौर में हम ग़रीब लगे उसे।
शायद इसलिए वो हमसे नज़रें चुराकर गई।
निभा न सके हम उससे जिस्मानी मोहब्बत
शायद इसलिए वो हमसे हाँथ छुड़ाकर गई।
प्यार था उससे कितना क्या बताऊँ मैं यारों।
शायद उसी का फ़ायदा वो उठाकर गई।
लगाकर गई मुझे अपनी यादों का रोग।
तन्हाई के गहरे सागर में मुझको डुबाकर गई।
करता रहा जिसे मैं सदा हँसाने की कोशिश।
वो ही महबूब मेरी मुझे इतना रुलाकर गई।
खाता जिसके हर घाव अपने सीने पर मैं।
वही बे-गैरत मेरे दिल मे छूरा घुसाकर गई।
वि.के.विराज़