कुछ और
कब चलना है? कब रुकना है?
कहां जाना है? मंजिल कौन सी है?
अगर यह जान जाते तो कुछ और बात होती…..
कुछ समय में रफ्तार थी
थोड़ा मुझमें भी गुमान था
वक्त मुझ पर मेहरबान था
कुछ इसका भी अभिमान था,
पर समय ने जो करवट बदला
सारा नशा काफूर हुआ
कौन कितना अपना है
तब कहां पहचान थी,
समय पर जो संभल जाते
थोड़ा खुद को बदल पाते
तो आज कुछ और बात होती
कुछ और बात होती……