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24 Jun 2024 · 1 min read

“पनघट की गोरी”

कुछ उनीँदी, केश कुछ बिखरे हुए,
आज पनघट पर, अचानक आ गई।
विहग, चटखारे, सुबह से ले रहे,
चाल, हिरनी सी, कहाँ से पा गई।।

अप्रतिम आभा, कपोलों की थी, उफ़,
चाँदनी के मन को भी कुँठा गई।
रँगतेँ अधरोँ की कुछ करतीं बयाँ,
लालिमा, प्राची की भी शरमा गई।।

किस तरह आभार अब उसका करूँ,
नयन-घट से, कुछ तो थी, छलका गई।
हर तरफ़ माहौल था, मादक हुआ,
मेरे क़दमों को भी, कुछ बहका गई।।

तन्तु ,कौतूहल के, उत्तेजित हुए,
प्रीत की थी भावना गहरा गई।
भर रहा था ओज अद्भुत, मिलन का,
याद था जो कुछ भी, सब बिसरा गई।

था किताबी ज्ञान भी, बेबस हुआ,
यूँ लगा, मुझको थी वो भरमा गई।
देवदुर्लभ है, युगों से, जो रहा,
ढाई आखर, पल मेँ थी, सिखला गई।

जग के झँझावात मेँ, उलझा था मन,
दो घड़ी को वो मगर बहला गई।
ज्यों मरुस्थल मेँ हो शीतल बूंद इक,
तप्त उर को आज कुछ सहला गई।

रूप गोरी का हिलोरें ले रहा,
पवन, कुछ आँचल भी तो सरका गई।
तार, उर-वीणा के, झँकृत हो उठे,
गीत “आशा”-मय थी, बरबस गा गई..!

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4 Likes · 4 Comments · 130 Views
Books from Dr. Asha Kumar Rastogi M.D.(Medicine),DTCD
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