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15 Nov 2021 · 4 min read

कुंडलिया

विधा-कुण्डलिया
(1)
मन का दीपक तम हरे, करे जगत उजियार।
अंतस सकल विकार तज, स्वच्छ करे संसार।।
स्वच्छ करे संसार, झूमकर मने दिवाली।
पावन हो उर द्वार,दिखे हर घर खुशहाली।।
सुन ‘रजनी’ बात, गर्व मत करना तन का।
नश्वर इसको जान, जलाना दीपक मन का।।
(2)
छलते रिश्ते झूठ के, दम्भ पतन आधार।
अपने ही अब कर रहे, अपनों पर नित वार।।
अपनों पर नित वार, करे मन हर्षित होता।
जीवन में विष घोल, स्वयं निज परिजन खोता।।
सुन ‘रजनी’ की बात, सजग हो जो नर चलते।
पाते जग में मान, नहीं फिर रिश्ते छलते।।
(3)
पूत विरासत मान कर, पिता करे अभिमान।
पग भू पर पड़ते नहीं, गाते गौरव गान।।
गाते गौरव गान, जगत की अद्भुत माया।
भूली निज संतान, पीर दे उन्हें रुलाया।।
सुन ‘रजनी’ की बात, करो मत आप सियासत।
सुता न समझो तुच्छ, मान लो इसे विरासत।।
(4)
#काया पर मत गर्व कर, क्षणभंगुर आधार।
सम्मोहित जग को करे, व्यापे मन व्यभिचार।।
व्यापे मन व्यभिचार, बनाया नृप को चाकर।
भूला निज सम्मान, गिरा पग ठोकर खाकर।।
सुन ‘रजनी’ की बात,चंचला ठगनी माया।
ऋषि,मुनि भटके राह, देखकर मंजुल काया।
(5)
गुणकारी तरु जान के, बनो बबूल समान।
परहितकारी काज कर,पाता जग में मान।
पाता जग में मान शाख में शूल समाए।
औषधि गुण की खान वैद्य की संज्ञा पाए।
कह ‘रजनी’ समझाय, वृक्ष है ये हितकारी।
गोंद, पात, जड़, छाल बनाते तरु गुणकारी।
(6)
वैभव से वसुधा लदी, छाई पीत बहार।
देती पुस्तकधारिणी, छंदों का उपहार।।
छंदों का उपहार, ज्ञान दे सृजन कराती।
साहस, शील स्वभाव, शक्ति दे मान बढ़ाती।।
सुन रजनी मनुहार, विनय उद्धारे शैशव।
भानु तिलक यश भाल, लोक में फैले वैभव।।
(7)
आई होली देख कर ,पले न द्वेष विचार।
दहन होलिका में करो, नफ़रत का व्यवहार।।
नफ़रत का व्यवहार तजो मिल रसिया गाएँ।
बहा नेह रसधार,रसीली प्रीति बढ़ाएँ।।
कह ‘रजनी’ मुस्काय धरा हरियाली छाई।
खूब मचे हुड़दंग रँगीली होली आई।
(8)
साली आई देख के, जीजा हुए निहाल।
भाँति-भाँति रँग देह को, जीजा करें बवाल।।
जीजा करें बवाल,खुमारी दिल पर छाई।
खेली होली साथ ,निकट जब साली पाई।
कह रजनी मुस्काय, चढ़ा ली भंग निराली।
हुआ हाल बदहाल, रँगन जब आई साली।।
(9)
‘श्रम ही जीवन है ‘

मजदूरी का फांवड़ा ,साहस लेकर साथ।
आत्मतोष श्रम से उठा, लीना लक्कड़ हाथ।।
लीना लक्कड़ हाथ लक्ष्य ले आगे बढ़ती।
कभी न मानी हार, श्रमिक पथ अविरल चलती।।
सुन ‘रजनी’ बतलाय कर्म इसकी मजबूरी।
छिपा नहीं लघु गात करे दिनभर मजदूरी।।
(10)
हास्य कुंडलिया
——————–
भाई-भाई लड़ रहे, भुला प्रीति पहचान।
लौकी-बेलन कर रहे, रिश्ते खूब बखान।।
रिश्ते खूब बखान ,चलाते देखे डंडे।
पत्नी करतीं राज, पति सब हो गए ठंडे।।
किससे करूँ बखान, बात अचरज की पाई।
सूरदास है नाम ,लगाते चश्मा भाई।।

चौका बरतन कर रहे, बच्चा गोद खिलाय।
आना-कानी ज्यों करें, गाल तमाचा खाय।।
गाल तमाचा खाय, नाथ सूरत लटकाई।
मोबाइल का दौर, उड़ाती नोट लुगाई।।
समय-समय का फेर,गँवाया तुमने मौका।
सुखभंजन है नाम, कर रहे बरतन चौका।।

ख़ातिर होती देख के, सजन चले ससुराल।
देखी साली सामने, फेंका झट से जाल।।
फेंका झट से जाल, चलाई नैन कटारी।
और बताओ हाल,पूछतीं सास हमारी।।
बीवी आँख दिखाय, सोच ओछी सब खोती।
दो-दो साली साथ, गज़ब की ख़ातिर होती।।

खोया निज परिवार को, दादा दे संत्रास।
राजनीति घर में बसा, उठा दिया विश्वास।।
उठा दिया विश्वास, हृदय के काले पाए।
बैठ कुंडली मार, जगत त्यागी कहलाए।।
सुन ‘रजनी’ बतलाय,नाम अपनों का धोया।
दीनबंधु ने आज,चैन जीवन का खोया।।
(11)
कहना चाहूँ बात मैं, शब्दों से लाचार।
शब्द हृदय उद्गार हैं, रिश्तों के आधार।
रिश्तों के आधार,बने व्यवहार निभाते।
नमक छिड़कते घाव, यही संताप दिलाते।
कह ‘रजनी’ समझाय ,मौन को मुखरित करना।
शब्द तोल के मोल, कभी अपशब्द न कहना
(12)
चक्की पीसे भोर में, दूजी भूख मिटाय।
दो पाटन के बीच में, ममता पिसती जाय।
ममता पिसती जाय,स्वजन पर प्यार लुटाती।
अरमानों को पीस, श्रमिक की श्रेणी पाती।
सुन ‘रजनी’ बतलाय, अडिग माँ धुन की पक्की।
घुन सी पिसती जाय, डालकर गेहूँ चक्की।
(13)
गुणकारी तरु जान के, बनो बबूल समान।
परहितकारी काज कर,पाता जग में मान।
पाता जग में मान शाख में शूल समाए।
औषधि गुण की खान वैद्य की संज्ञा पाए।
कह ‘रजनी’ समझाय, वृक्ष है ये हितकारी।
गोंद, पात, जड़, छाल बनाते तरु गुणकारी।
(14
‘कोरोना’
———-
कोरोना के कहर से , जग में हाहाकार।
सर्दी ,खाँसी, छींक से,पाता यह विस्तार।
पाता यह विस्तार, बीमारी आई भारी।
कैसे हो कल्याण ,विचारे दुनिया सारी।
समझो मेरी बात, न मुश्किल इसको ढ़ोना।
करो नहीं कुछ चूक, डरेगा खुद कोरोना।

मांसाहारी चीन से, फैला है यह रोग।
रुधिर पान ऐसा किया, छोड़ा नहीं निरोग।
छोड़ा नहीं निरोग, ग्रसित इससे जग सारा।
ढूँढ़ रहा उपचार, बचा कब देश हमारा।
सुन ‘रजनी’ की बात, बचो बन शाकाहारी।
जीवों का अभिशाप, बना है मांसाहारी।

कोरोना संकट नहीं , क्यों दिखते भयभीत।
हाथ मिलाना छोड़कर ,बचो संक्रमण रीत।
बचो संक्रमण रीत, मदद करने की ठानो।
करो सुरक्षा आप ,भयावह इसे न मानो।
कह ‘रजनी’समझाय, नहीं यह जादू-टोना।
तापमान का तेज़ , मिटाता यह कोरोना।
(15)
छल कपटी मन में बसा, पाले कपट विचार।
काम, क्रोध, मद, लोभ में ,करे मनुज व्यभिचार।।
करे मनुज व्यभिचार, मूढ़ बदनामी पाता।
धर्म-कर्म, बिसराय, स्वजन से मुँह की खाता।।
कह ‘रजनी’ समझाय , बहुत पछताएगा कल।
पीर पराई जान, कलंकित कर देगा छल ।।
(16)
“शिव बारात”
——————
त्रिपुरारी दूल्हा बने,स्वागत नगरी आज।
आए हैं बारात ले, भस्मी तन पर साज।।
भस्मी तन पर साज, चले भोले मस्ताने।
नंदी देख सवार,भक्त लागे अकुलाने।।
कह “रजनी”ये बात,आज काशी भइ न्यारी।
खूब बढ़ायो मान, बसे नगरी त्रिपुरारी।।
(17)
घर आए दामाद जी, साली हुई निहाल।
सास देख पंखा झले, गर्मी से बेहाल।
गर्मी से बेहाल, तकें सलहज को मुड़कर।
भौंह सिकोड़े नार, प्रफुल्लित खाएँ झुककर।
कह ‘रजनी’ समझाय, चलो मत इतना तनकर।
हो यहाँ मेहमान, चैन मिलता अपने घर।।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी (उ. प्र.)

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