कुंडलिया छंद
रोटी की खातिर किया, भूखा कृत्य हजार।।
तृषित उदर कब देखता, भरा स्वर्ण भंडार।।
भरा स्वर्ण भंडार, भूख के सम्मुख बौना।
भूखा है यह पेट, नहीं यह खेल-खिलौना।
बदले मनुज विचार, खत्म हो नीयत खोटी।
बंद दिखे सब द्वार, दीन जब माँगें रोटी।।१।
पावस पथ सम देखता, चातक चतुर चकोर।।
चंद्र प्रीति सीमित रहे, भरे नखत चख कोर।।
भरे नखत चख कोर, चकोरा चिर जिज्ञासा।
कलियाँ पावस प्रीति, भृंग युग-युग का प्यासा।
तृषित उदग बिन भूमि, घिरी घनघोर अमावस।
नव किसलय पर प्रीति, क्षणिक बरसाये पावस।।२।
अधिकारी सब सो रहे, नेता भी हैं मस्त।
कुदरत के बदलाव से, जनता है अब त्रस्त।।
जनता है अब त्रस्त, देख शासन मनमानी।
लूट रहें बेखौफ, साथ में अनपढ़ ज्ञानी।
कट जाती है जेब, सभी की बारी-बारी।
फिर भी रहते मौन, सभी आला-अधिकारी।।३।