*** कीमत***
***कीमत***
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श्रीमान दीनदयाल शर्मा एक सहकारी बैंक मे प्रबंधक है।जो की सीधे साधे धार्मिक प्रवृति के इंसान है।जिनका एक छोटा सा खुशहाल परिवार है।परिवार मे पति-पत्नि और निकुँज नाम का इकलौता आज्ञाकारी बेटा है।जो डाक विभाग मे बाबू है।लेकिन अभी तक विवाह नही किया है।पत्नि का नाम सुशीला है।जो एक कुशल गृहणी है।वो कभी कभी थोडा गुस्सा हो जाती है।
अभी तक शर्माजी दफ्तर जाने को तत्पर नही दिख रहे है।जबकी वे कर्तव्य और समय के बडे पाबंद व्यक्ति है।रोज ठीक दस बजे दफ्तर पंहुचना उनकी आदत है,चाहे बाकी कार्मिक आये या नही आये।वे इस बात पर ज्यादा ध्यान नही देते थे।क्योकी उनका मानना था ,की कोई हमे देखै या नही देखै लेकीन भगवान जरूर देखते है।
आज सुबह से ही शर्माजी के घर बडी चहल पहल सी हो रही है।शर्माजी भी अभी तक यही है।जिसे देखकर लगता है,की शायद आज किसी मेहमान का आगमन होने वाला है।शर्माजी किसी चलायमान यन्त्र के भांति यहां से वहां तेज गति से दौड रहै है,साथ ही साथ हड़बड़ाहट मे कुछ बोलते जा रहै है।जिसका सुर बाहर चौबारे तक सुनाई दे रहा है।
अचानक से सुशीला की तेज आवाज सुनायी पडती है।
हे राम!ये लडका अभी तक सोया पडा है।कब उठेगा और कब नहाकर तैयार होगा।
शर्माजी-अरे!क्या हुआ भाग्यवान,क्यू गला फाड रही हो।
सुशीला ने कहा-क्यो नही फाडू गला,जरा अपने बैटे को तो देख लो।कैसे सोया पडा है।
शर्माजी-कोई बात नही आज तो उसका भाग्य उदय होने वाला है।
सुशीला ने टोका शर्माजी हवा मे मत उडिए,दिवारो के भी कान होते है।
ये सुनकर तो कोई भी अंदाजा लगा सकता है,की आज इनके लाडले का रिश्ता आ रहा है।
शर्माजी सहसा घडी की ओर देखते है और बोलते है-
ओह!मेहमानो के आने का समय हो चुका है।तुम जल्दी जल्दी काम निपटाओ,और हां अपने लला को भी जल्दी तैयार कर देना।मै बैठक मे सब कुछ ठीक करता हु।
शर्माजी कुर्सीयो को साफकर,व्यस्थित कर रहै है।
अचानक से एक चमचमाती कार शर्माजी के दरवाजे पर आकर रुकती है।जिसके कानफोडू होर्न की आवाज शर्माइन के कानो मे पडती है।वो दौडकर शर्माजी को आगाह करती है।और स्वंय रसोईघर की ओर लपकती है।झटपट कुछ पानी के गिलास और नाश्ते की तश्तरीयाँ सजाती है।निकुँज भी आता दिखायी पड रहा है।शायद नहाकर ही निकला है।चमचमाती कार से चार आदमी उतरकर सीधे बैठक मे प्रवेश करते है।शर्माजी दरवाजे पर खडे खडे सबको नमस्कार कर रहै है।इस औपचारीकता के बाद सभी कुर्सीयो पर विराजमान हो चुके है।अब मेहमानो से परिचित हो लेते है।आप श्री कृष्णपाल भार्गव है।
आप जलदाय विभाग मे मुख्य अभियन्ता है।चेतना आपकी इकलौती बेटी है।जिसके रिश्ते के सिलसिले मे आप आये है।जिसकी माता बचपन मे ही स्वर्ग सिधार गयी।तब से आप ही माता-पिता दोनों है।बगल मे आपके छौटे भाई किशोरीलाल है।सामने आपके बहनौई रामसेवक जी और एक आपके अनन्य मित्र गौमुख है।
बातो का सिलसिला चल पडा है।चाय नाश्ता मेज पर सज चूका है।
चाय की चुस्की लेते हुए शर्माजी बोल रहै है।
देख लो जी इकलौता बेटा है और ऊपर से सरकारी ओहदै पर कार्यरत है।
कृष्णपाल-अच्छा जी,हमारी लडकी भी कुछ कम नही है।
एमबीए कर चूकी है।साथ ही घर के काम मे भी प्रवीण है।
किशोरीलाल-ये तो कुछ नही,कई कम्पनियाँ लाखो का पैकेज दे रही है।
गौमुख-लेकिन उसे तो खुद की मेहनत से खुद की कम्पनी खडी करनी है।
शर्माजी-अच्छी सोच है,आज तो महिलाऐ भी हर काम बखूबी कर रही है।
रामसेवक-अरे!लडके को तो बुलाये।
शर्माजी धीमे से आवाज देते है!निकँज………निकुँज
लडका सीधा बैठक की ओर आ रहा है।
निकुँज-जी पिताजी!आपने बुलाया मुझे।
किशोरीलाल-आपको हमने बुलवाया है।आइए इस कुर्सी पर बैठ जाइए।
सब एक-एक करके लडके से बातें करते है।
कृष्णपाल-दीनदयाल जी लड़का हमें पसंद है।तो फिर रिश्ते की बात पक्की कर लेते हैं।
शर्माजी सकपकाते हुए बोले -कृष्णपाल जी इतनी भी क्या जल्दी है।लड़का आपका ही है समझो !लेकिन
कृष्णपाल जी बीच में ही बात काटते हुए बोले लेकिन क्या ?
शर्माजी-बुरा मत मानिए वैसे मेरे लड़के के लिए बड़े बड़े घरों से रिश्ते आए हैं,लेकिन मैंने आप के खातिर उन सब को मना कर दिया है।इसलिए क्यों नहीं पहले लेन-देन की बात साफ कर दे।
किशोरीलाल-कैसा लेन-देन?
शर्माजी-अरे हजूर!बच्चे की पढ़ाई लिखाई ऊपर से नौकरी की तैयारी में खूब पैसे खर्च हुए हैं।अब शादी बाद लड़के को तो अच्छी दुल्हन मिल जाएगी मां-बाप को क्या मिलता है ,जी वही मिलता है जो आप दया दृष्टि करके झोली में डाल देते हैं।
शर्मा जी के यह शब्द सुनकर कृष्णपाल जी को थोड़ा बुरा लगा लेकिन वे अपने आप को संयमित करते है।
कृष्णपाल- वैसे क्या कीमत आंक रखी है!अपने बेटे की?
यह शब्द सुनकर शर्मा जी का चेहरा पीला पड़ गया और लगा जैसे पैरों तले से जमीन खिसक गई हो।
वे कोई जवाब नहीं दे पाए सिर्फ इतना बोले- हमें आपके घर में अपने बेटे का रिश्ता नहीं करना है।
यह स्वर्ग घर से भी वह वाली गाड़ी में बैठ कर विदा हो जाते हैं।
उधर शर्मा जी काफी देर तक अपना सिर पकड़ कर बैठक में ही बैठ जाते हैं
✍️ प्रदीप कुमार “निश्छल”