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6 Oct 2020 · 1 min read

किस क़दर हमको आज़माते हैं

किस क़दर हमको आज़माते हैं
दूर जाकर न पास आते हैं

कुछ वो होंठों में बुदबुदाते हैं
क्या कहा हम समझ न पाते हैं

सामने सबके मुस्कुराते हैं
छुप के आँसू मगर बहाते हैं

यूँ नज़र से नज़र मिली उनसे
बिन पिये हम तो लड़खड़ाते हैं

बात छोटी सी थी मगर रूठे
आज चलकर उन्हें मनाते हैं

जो पता पूछते रहे कल तक
रास्ता वो हमें दिखाते हैं

एक सच ये भी है ज़माने का
आज मतलब के रिश्ते-नाते हैं

ऐसा लगता था बेज़ुबाँ है वो
आज बातें वही बनाते हैं

उनके चेहरे पे जीतने की ख़ुशी
देखनी हमको हार जाते हैं

देख ‘आनन्द’ का कड़ा तेवर
अच्छे-अच्छे सुधर भी जाते हैं

– डॉ आनन्द किशोर

2 Likes · 214 Views
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