किस बात का दीप
किस बात का दीप जलाते,
हो तुम अपने छत आँगन में?
क्या अंधियारा मिटा चुके हो,
दीन हीन उजड़े बागन में?
क्या कुम्हार के बच्चों का,
बिस्कुट टॉफी है याद तुम्हें,
या आधुनिक जगमगता में,
पर्यावरण सुधि तुम भूले?
किस बात के बम पटाखे,
छोड़ रहे हो तुम गगन में?
किस बात का दीप जलाते,
हो तुम अपने छत आँगन में?
जिसने मर्यादा को जीती,
उनके स्वागत में नर नारी,
ले मसाल प्रसन्न हो भागे,
दीप जलाए घारी घारी।
क्या कुछ मानवता अपनाए,
तुम भी अपने युग सावन में?
किस बात का दीप जलाते,
हो तुम अपने छत आँगन में?
कैसे हो रोशन हर कोना ?
साफ सफाई बड़ी नेक किये।
पर अंधियारा छिपा हिया में,
चाहे जलाए लाख दिए।
क्या एक बाती प्रेरण की,
कभीजलाए अपने जीवन में?
किस बात का दीप जलाते,
हो तुम अपने छत आँगन में।
क्या तुम अपने छल कृत्यों,
को देख रहे हो दीप जला?
या फिर क्लेश कलुषता को तुम,
जला रहे हो मोम गला?
ये कैसे जो घी के दीये?
चुभते भूखों के आँखन में।
किस बात का दीप जलाते,
हो तुम अपने छत आँगन में।
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अशोक शर्मा,कुशीनगर,उ.प्र.
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