किस पर करूं यकीन…?
किस पर करूं यकीन,
किसे मैं अपना बोलूं,
मन भीतर गम की गांठ,
सामने किसके खोलूं …?
मैंने हर रिश्ते को चाहा,
जी भर भर के,
पाला पोसा सदां,
मुसीबत भी सह सहके,
मकसद था फैलाना जग में,
प्रेम, प्रीत और भाईचारा,
जुड़ा रहे हर शख्स-शख्स से,
बंधु- बंधु से ना हो न्यारा,
इच्छा थी सबके दुःख हर कर,
एकदिन नींद चैन की सो लूं,
पर किस पर करूं यकीन,
किसे मैं अपना बोलूं ?
सीखा था संसार सदां ही,
स्वजन बान्धवों से बनता है,
जीवन का हर सुन्दर रिश्ता,
सौभाग्य से ही मिलता है,
सबके सहयोगों से मिलती,
कीर्ति, सुकीर्ति और सम्वृद्धि
अपनों की चाहत से होती,
कुल की आन वान में वृद्धि,
पर सब रिश्ते स्वार्थ सिद्धि के,
जी चाहा, जी भरकर रोलूं,
किस पर करूं यकीन,
किसे मैं अपना बोलूं …?
जिनको हमने अपना माना,
वे दर्दे-दिल दान दे गये,
जो सांसों की सुर, लय, ताल थे,
जाते जाते जान ले गये,
जिन्हे दूध पिला सम्पुष्ट किया,
वही सांप आस्तीन का बन बैठे,
जिन पर सबकी बागडोर थी,
खुद के ही खैरख्वाह बन बैठे,
कैसे किसी रिश्ते को परखूं,
किसको कसौटी पर धर तोलूं ?
किस पर करूं यकीन,
किसे मैं अपना बोलूं ….?
✍️ – सुनील सुमन