किस्से कारनामों के इनके रोज आते हैं
खुद को न ढूंढ पाए जो, पढ़ाते हैं जमाने को
जड़ जमीन न आसमा, बातें हैं उड़ाने को
खुद चल भी नहीं सकते, टिके गैरों के बूते पर
स्वावलंबन पर बे, बड़ी तकरीर देते हैं
न मंजिल है न राही है, न मरज और न दवा
मुकम्मल पतासाजी, बे नुक्सा रोज देते हैं
क्या कहूं इनकी सुरेश, शाने शराफत में
किस्से कारनामों के, इनके रोज आते हैं