किस्मत
ढूँढते रहे
ता जिन्दगी
किनारे हम
कभी मंझधार
तो कभी
तूफान सा
मिला मंजर
कहाँ है किनारा
हम भटकते रहे
होते हैं वो
किस्मत वाले
मिलती जिन्हें
पतवार
खैते रहे नौका हम
थी बदकिस्मती हमारी
करते रहे
जिन्दगी से
सिर्फ़ एतवार हम
सोचते रहे
आखिर होता
कहाँ किनारा है
चले थे सफ़र पर
थे साथ हमसफ़र
दिखी
सूनी महफ़िले
और
महफ़ूज थे
कब्रिस्तान
जिन्दगी हम
ढूढ़ते रहे
यहाँ वहाँ
कहाँ हैं किनारे
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल