किस्मत भी न जाने क्यों…
हमने तुमको दिल दिया, तुमने आँसू-भार।
प्रेम-समर में पाँव रख, पायी हमने हार।
बनते-बनते काम में, देती पलटी मार।
किस्मत भी न जाने क्यों, खाए रहती खार।
शब्द हृदय पर यूँ लगे, जैसे असि की धार।
चटक गया दिल काँच सा, टुकड़े हुए हजार।
टूटे दिल का कर रहे, आँसू से उपचार।
किस्मत भी न जाने क्यों, खाए रहती खार।।
ख्वाब अधूरे ही लिए, लिए बुझे अरमान।
गम को सीने से लगा, लौटे पी अपमान।।
ठोकर खायी बीच में, पड़ी वक्त की मार।
किस्मत भी न जाने क्यों, खाए रहती खार।।
जीवन विपदा से भरा, नहीं तनिक आराम।
आन फँसे मझधार में, तड़पें आठों याम।।
कैसे नौका पार हो, रूठा खेवनहार।
किस्मत भी न जाने क्यों, खाए रहती खार।।
हाय ! घड़ी मनहूस में, लगा प्रेम का रोग।
योग मिलन का था नहीं, होना लिखा वियोग।।
चारों खाने चित गिरे, मिला नहीं आधार।
किस्मत भी न जाने क्यों, खाए रहती खार।।
बाजी निकली हाथ से, हर पल मन में सोच।
दे आया कब कौन हा, किस्मत को उत्कोच।।
हालत दिल की देखकर, रोते नौ-नौ धार।
किस्मत भी न जाने क्यों, खाए रहती खार।।
जिससे मन की बात की, लगी उसी की टोक।
उस गलती का आज भी, मना रहे हम शोक।
राह न कोई सूझती, बंद दिखें सब द्वार।
किस्मत भी न जाने क्यों, खाए रहती खार।।
आँसू की सौगात दे, छोड़ चले मझधार ।
यादें-तड़पन-करवटें, करते मिल सब वार।।
मन पर भारी बोझ है, आता नहीं करार।
किस्मत भी न जाने क्यों, खाए रहती खार।।
दो गोलक में नैन के, सपने तिरें हजार।
कुछ होते साकार तो, कुछ हो जाते खार।।
मन का नाजुक आइना, चटके बारंबार।
किस्मत भी न जाने क्यों, खाए रहती खार।।
साँस चले ज्यों धौंकनी, नैन चुएँ पतनार।
प्रोषितपतिका नार नित, जीती मन को मार।।
कैसे हो ‘सीमा’ मिलन, खड़ी बीच दीवार।
किस्मत भी न जाने क्यों, खाए रहती खार।।
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )