किसी ग़ाफ़िल का यूँ जगना बहुत है
भले दिन रात हरचाता बहुत है
मगर मुझको तो वह प्यारा बहुत है
वो हँसता है बहुत पर बाद उसके
ख़ुदा जाने क्यूँ पछताता बहुत है
जुड़ा है साथ काँटा जिस किसी के
उसी गुल का यहाँ रुत्बा बहुत है
मैं जगता रोज़ो शब हूँ इसलिए भी
के वक़्ते आखि़री सोना बहुत है
अगर ख़ुद्दार है तो डूबने को
सुना हूँ आब इक लोटा बहुत है
है राह आसान रुस्वाई की सो अब
उसी पर आदमी चलता बहुत है
न हो पाया भले इक शे’र तो क्या
किसी ग़ाफ़िल का यूँ जगना बहुत है
-‘ग़ाफ़िल’