किसी से राब्ता कोई नहीं है
किसी से राब्ता कोई नहीं है
ज़माने में मेरा कोई नहीं है
अभी तो याद है बाक़ी दिलों में
मगर अब सिलसिला कोई नहीं है
अभी वो दूर ही रहते हैं मुझसे
मगर अब फ़ासला कोई नहीं है
यहाँ हैं अजनबी सारे के सारे
किसी को जानता कोई नहीं है
सभी सुन्दर से चेहरे पर फ़िदा हैं
गुणों को आँकता कोई नहीं है
मिले हैं आदमी बेकार सारे
मसीहा तो मिला कोई नहीं है
यहाँ हालात कर्फ़्यू की तरह हैं
घरों से झांकता कोई नहीं है
गरेबां तो कोई झांके भी अपना
यहां पर पारसा कोई नहीं है
समन ‘आनन्द’ बेशक़ है तेरा ही
यहाँ इस नाम का कोई नहीं है
– डॉ आनन्द किशोर