किसी अजनबी सी डगर के
किसी अजनबी सी डगर के
मुसाफ़िर सभी हैं सफ़र के
इसी फ़िक्र में चल रहे हैं
कभी बात होगी ठहर के
निकलकर कभी आए आँसू
कभी दर्द आया उभर के
शबे-फ़िक्र गुज़री है तन्हा
वो हैं मुंतज़िर भी सहर के
सियासी मदारी हैं नेता
न हालात अच्छे नगर के
तज़ुर्बा मिला है उन्हे भी
बड़ी मुश्क़िलों से गुज़र के
अभी सर था पानी के अन्दर
मगर आ गये हैं उबर के
इधर भी उधर भी कहीं भी
रहे हैं न अब वो किधर के
उधर हाल ‘आनन्द’ ऐसा
जो हालात अब हैं इधर के
– डॉ आनन्द किशोर