“किसान का दर्द”
हूँ स्वेद चुआता मैं टप-टप,
है राजनीति का ज्ञान नहीं।
पर हाँ, आता है जो कुछ भी,
उसका किँचित अभिमान नहीं।।
रखवाली खेतों की करता,
अब अन्य कोई पहचान नहीं।
कितने पशु छुट्टा घूम रहे,
क्या शासकगण को भान नहीं।।
चल सकूँ कभी सर ऊँचा कर,
क्या लघु कृषकों का मान नहीं।
सर चढ़ कर मँहगाई बोले,
देता कोई क्यों कान नहीं।।
गाऊँ जो, मेघ-मल्हार प्रिये,
स्वर मेँ, अब वैसी तान नहीं।
हल-बैल लिए लौटूँ जब घर,
बचती तब मुझमें जान नहीं।।
रिरियाता मुन्ना बाइक को,
घटने पाए पर शान नहीं।
बिटिया रानी को समझाता,
खेती, पैसे की खान नहीं।।
नित ताने पत्नी देती है,
उस सा ज्यों कोई सुजान नहीं।
लाली हो चली सयानी अब,
यद्यपि मैं भी अनजान नहीं।।
बनती जब प्रगति योजना है,
आता मेरा क्यों ध्यान नहीं।
ए0सी0 मेँ बैठे साहब का,
मिटता क्यूँकर अज्ञान नहीं।।
जब सुख-समृद्धि की बात चले,
चर्चा मेँ कहीँ किसान नहीं।
कृषि, अर्थ-तन्त्र की रीढ़ यहाँ,
लेते फिर क्यूँ, सँज्ञान नहीं।।
ऋण जल्द चुकाने का हरगिज़,
रुकता क्यूँकर फ़रमान नहीं।
समझे कोई सच्चाई को,
दिखता कोई इमकान नहीं।।
है धैर्य, सम्पदा जीवन की,
कितनों के अभी मकान नहीं।
बस रूखी सूखी मिल जाए,
माँगूँ मैं कोई जहान नहीं।।
मेरी भी कुछ तो “आशा” है,
हूँ कृषक, कोई भगवान नहीं।
नित देश प्रगति करता जाए,
भारत सा कोई महान नहीं..!
इमकान # सम्भावना, possibility
##———-##———-##