किसान का दर्द
बदल गया है फ़ैशन सारा;
बदल गया दुनिया का हाल,
बदला नहीं किसान देश का;
अब भी “बेचारा बदहाल” …
व्यवस्था का जुल्मों-सितम;
क़ुदरत का क़हर पी रहा,
देखों मेरा अन्नदाता;
ख़ुद ज़हर पी रहा…
बिलखती हैं ख़ामोशी
चीख़ता हैं सन्नाटा,
पालनकर्ता माँग रहा हैं;
दो रोटी का आटा…
झेलता ही आया;
हरदम दोहरी फटकार,
एक बादल नहीं बरसता;
दूजा बरसता हैं साहूकार…
देखों क़र्ज़ तले दबी;
एक आत्मा मर रही हैं,
भरी चौपाल में उसकी;
पगड़ी उतर रही है…
कलिकाल का महातमाचा;
लगा मुझे हंसी आई,
बीस रुपये का चैक देखकर;
उसकी आँखें भर आई…
अनब्याही बेटी ने;
दर्द शूल सा दिया हैं,
वो आज उसी की चुनरी से;
पंखे पर झूल गया हैं…
– नीरज चौहान