‘किशोर का बस्ता’
किशोर का बस्ता
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किशोर की आयु लगभग दस वर्ष की रही होगी,जब कोरोना का प्रकोप हुआ।वह सरकारी स्कूल में पांचवी कक्षा का विद्यार्थी था।उसके पिता बनवारी लाल वर्मा किसी कारख़ाने काम करते थे।कोरोना शुरु हुआ तो बाकी सब बंद हो गया।पिता का कारख़ाना बंद;स्कूल बंद।सब घर के लोग अंदर बंद।बेचारा किशोर कहां तो सुबह उठ कर तैयार हो स्कूल जाता।कक्षा के मित्रों के साथ खेलता मस्ती करता।पढ़ने में अच्छा था।इसलिये कक्षा के सभी उसके साथ दोस्ती करना चाहते थे।अपनी तंगहाली देखकर वह मन ही सोचता कि मैं जल्दी से बड़ा हो जाऊं । बहुत पढ़ाई लिखाई करूं।माता पिता को ख़ूब धन कमा कर दूं। छोटे भाई को पढ़ा लिखा कर बड़ा अफ़सर बनाने में मदद करूंगा।बेचारा;उम्र बच्चे की थी पर विचारों में बड़े बड़ों को भी पीछे छोड़ दे।
सारे घर में बंद।कुछ दिन तो अच्छा लगा।पिता कभी छुट्टी नहीं करते थे।अब घर पर रहते हैं।सारे एक साथ खाना खाते;टी वी देखते।कुछ देर पिता उसको पढ़ाते फिर मन उचाट हो जाता को ठंडी सांस लेकर छोड़ देते और कहते ‘जा आगे का पाठ पढ़ यदि समझ न आये तो पूछना’।ऐसा लगता मूंह एक बड़ा सा प्रश्न चिन्ह हो गया है और किशोर जिंदगी के उत्तर उनके चेहरे और उनके के उलझे हुये बालों में से खोजने लगता।
दो महीने तो जैसे तैसे गुज़र गये।माँ के दाल के डिब्बों में रखे पैसे और पापा की बचत खत्म होने को थी।मालिक ने तीन महीने तो आधी तनख़्वाह दी फिर जवाब दे दिया।बनवारी लाल जी सिर पर हाथ रख कर बैठ गये।’किशोर की मां, आज मालिक ने जवाब दे दिया’।वैसे नाम उसका संतोष कुमारी था ।दसवीं तक पढ़ी लिखी थी।सिलाई कढ़ाई जानती थी।पड़ोस के बच्चों और औरतों के कपड़े सी कर चार पैसे कमा लेती थी।
संतोष ने जब यह सुना तो सिर पर हाथ रख कर शिला जैसी बैठ गई।आँखों से जलधारा बहने लगी । अब क्या करेंगे?भविष्य अंधकारमय दिखने लगा! यहाँ तो जैसे तैसे बच्चे पढ लिख जाते:अब गांव में पांच बीघा के खेत में तीन परिवार कैसे पालेंगे!!ऊपर से बच्चों की पढ़ाई?कहां मुंबई और कहां बासेड़ा गांव?वहां स्कूल में दो शिक्षक हैं और कुल मिला कर सारी पहली से पांचवी के पचास विद्यार्थी।यहां तो किशोर की कक्षा में ही चालीस विद्यार्थी हैं।हर विषय का अलग शिक्षक है।सोच के दिल बैठने लगा संतोष कुमारी का!!
बनवारी भाई भी उदास बैठे थे।संतोष ने धीरे से पूछा ‘अब क्या करें?’ ‘गांव चलेंगे और क्या? जब कारख़ाना खुलेगा तो आ जायेंगे।यहाँ भूखे मरने से अच्छा है हाँ की रूखा सूखी रोटी। ‘जवाब मिला।’पढ़ाई का क्या होगा किशोर की!’होना क्या है;जिसने पढ़ना है वह गांव में पढ लेगा!परसों की टिकट मिल रही है,सुना है यह गाड़ियाँ भी बंद होने वाली हैं!’ कहे तो ले आउं जाकर!’ बेचारा किशोर मां-बाप का यह वार्तालाप सुन रहा था।वह उठा और बाप के गले में हाथ डाल कर दुलार से बोला ‘पापा यहीं और काम ढूंढ लो।कहो तो मै भी चल लूँगा साथ में।’बनवारी की आँखों में आंसू आ गये।नहीं बेटा ,सारे काम बंद हैं।क्या करें? यहाँ तो कोई उधार भी नहीं देता।
अचानक किशोर के दिमाग में विचार कौंधा।पापा सब्ज़ी का ठेला लगाते हैं न।मैं अपने घर के बाहर लगाउँगा और आप गलियों में बेच आना।।मासा’ब कह रहे थे काम कोई छोटा बड़ा नहीं होता।’गांव जाकर खाली बैठने से अच्छा है यहां कुछ करना।किसोर ठीक कह रहा है!’संतोष ने किशोर की बात का समर्थन करते हुये कहा! पापा बनवारी को भी बात कुछ जमने लगी।बात तो किसोर सही कह रहा है।अभी सात आठ हज़ार रुपये थे और इस महीने की आधी तनख़्वाह के आठ हज़ार अलग से।चलो देखते हैं कुछ दिन कर के!नहीं तो हाँ तो है ही। यह तो शुक्र है उसने पिछले साल किसी तरह यह झुग्गी ले ली थी और किराये का बोझ भी नहीं था।
मन में नया काम करने की उमंग उठी और किशोर अपनी जगह ख़ुश था कि चलो यहीं रह कर पढ़ाई होगी।मैं खुद से पढ़ूंगा यदि कुछ नहीं समझ में आयेगा तो पापा से पूछ लूंगा।अगले दिन बनवारी मे साईकिल उठाई और पहुंच गया मंडी गया।वहाँ से चुनिंदा बढ़िया पाँच पाँच किलो सब्जियां खरीदीं और साथ मे धनिया अदरक,मिर्ची और टमाटर भी लिये।कुल मिला पैसे लगे पाँच सौ साठ रु.।अरे,गली वाला भैया को बहुत लूटता है।ठेला तो था नहीं हां उसने भैया से चौड़ी सी बाँस वाली टोकरी ख़रीदी।
घर पहुंच कर नहा धोकर एक चाय की प्याली रस के साथ खाकर ।सब्ज़ियों का झाबा सजाया। कुछ तीन चार लगभग एक एक किलो रख दीं कि किशोर लगायेगा।संतोष को सब्ज़ी को बेचने के दाम बता कर निकल पड़ा साईकिल पर ।
उधर बनवारी निकला अपना मोहल्ला छोड़ तीसरे मोहल्ले में। पहले तो झिझका फिर आवाज़ लगाई “सब्जीई —ले लो–!”थोड़ा आगे निकला तो किसी महिला ने पीछे से आवाज लगाई “भइया,सुनना–‘। वह मुड़ा और पीछे उस महिला के घर के सामने पहुँचा। इससे पहले वह कुछ बोल पाता महिला ने ही पूछा ‘भिंडी है–? ‘हां,है न।’बनवारी ने कहा।”कैसे दी है?’ महिला ने पूछा!’साठ रुपये किलो’।’न,बाबा न।आजकल साठ रुपये कहां ! अभी को पचास देकर गया है!’ महिला ने कहा।’बहन जी, यह कच्ची भिंडी है।’बनवारी ने कहा।किसी तरह उसने आधा किलो भिंडी बेची। शाम तक उसने लगभग सारी सब्ज़ी बेच डाली।एक बैंगन और पाँच टमाटर को छोड़ कर।
पीछे से किशोर भी शेर निकला।सब पड़ोसियों ने कुछ न कुछ ख़रीद लिया।शाम तक पैसे गिने बारह सौ बने।बनवारी की बाँछे खिल गई यह तो तनख़्वाह से भी ज्यादा निकला। बनवारी ने लालच नहीं किया बस पाँच की जगह सात किलो प्रति सब्जी लाने लगा। काम चल निकला को किशोर को भी पढ़ाने का मन करने लगा।किशोर ने भी ख़ुश हो कर बस्ता झाड़ा और किताबें निकाली। पहले हिंदी,गणित,फिर विज्ञान,और समाजिक अध्ययन । “पापा ,यह प्रकाश संशलेश्ण क्या होता है?”बनवारी ने समझाया।किशोर ख़ुश हो गया।अ मुंबई में रह कर ही पढ़ाई कर बड़ा आदमी बनूंगा,ममी पापा को बहुत सुख दूँगा।
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राजेश’ललित’