किरण महबूब सी आयी
बदलती कुछ फ़िज़ां ऐसी,सुहानी भोर लगती है ।
चमन की हर कली देखो,सँवरती आज लगती है ।
उतरती पाँव ज़मीं पर रख,किरण महबूब सी आयी ।
समा ‘अंजान’ बाँहों में,बिखरती आज लगती है ।
दीपक चौबे ‘अंजान’
बदलती कुछ फ़िज़ां ऐसी,सुहानी भोर लगती है ।
चमन की हर कली देखो,सँवरती आज लगती है ।
उतरती पाँव ज़मीं पर रख,किरण महबूब सी आयी ।
समा ‘अंजान’ बाँहों में,बिखरती आज लगती है ।
दीपक चौबे ‘अंजान’