किया क्या जाए रे
आँखें हैं आसुओं में भीगी हुई
आँखों में नींद कहाँ से आए रे
सपना जो देखा था आँखों ने
बिखर गया, चैन कहाँ से आए रे
दिल प्रेम की बाजी हार गया
अब सकून कहाँ से आए रे
प्यार में क्या खोया पाया हमने
यह हिसाब समझ नहीं आया रे
सनम जो आँखों का तारा था
पराया है, किया क्या जाए रे
हद बेहद विस्वास किया हमने
घात हुआ,यकीं कहाँ से आये रे
एक प्रेम गीत हमने संग गाया था
सुर नहीं लगे,किया क्या जाए रे
सीमाएं,बंदिशें और घना पहरा था
नहीं लांघ सके किया क्या जाए रे
बाहर प्रभात बहुत कोहरा था
भानु नहीं आए किया क्या जाए रे
अंबर में घने घनेरे मेघ तो छाये थे
पर नहीं बरसे, किया क्या जाए रे
फसले तो अच्छी पक गई थीं
गड़े पड़ गए,किया क्या जाए रे
रिश्ते तो निभाए थे बड़ी शिद्दत से
संतुष्टि नहीं,किया क्या जाए रे
चाहा था उन्हें बड़ी शिद्दत से
दिल तोड़ दिया, किया क्या जाए रे
हर शख्स अजमा के देख लिया
धुर्त निकला किया क्या जाए रे
अपनों को भी खूब अजमाया था
बेगाने हुए, किया क्या जाए रे
श्वेत हिम सी नर्म बाहों में जम गए थे
गर्म सासो से पिंघले,किया क्या जाए रे
तारों की टिमटमाहट में चमकी रात खूब
चाँद बादलों में छिप जाए,किया क्या जाए रे
सौंप दिया तन मन प्रेमवश भावुकता में
चाँद भी दागी है, किया क्या जाए रे
जिन्दगी की उलझन में उलझ गए
कोई ना सुलझाए,किया क्या जाए रे
जहाँ भी रहो जहान में खुश सदा रहो
खुशी सनम की में ही जिया जाए रे
सुखविंद्र सिंह मनसीरत