‘किनारा’
हमने जिसे समझा था सहारा,
वो किनारा अब है ही कहाँ?
हरा था भरा था लुभावन था कभी भरपूर,
उड़ती है बिखरती है रेत ही रेत अब वहाँ।
पंक्ति बद्ध छपे पद चिह्न थे जो किनारे पर,
तूफां बेवफ़ा बिखरा गया यहाँ से वहाँ।
सुंदर वो किनारा बह गया किसी रोज़,
बैठकर बिताए थे सुहाने पल हमने जहाँ।
दुपट्टे की किनार चुरा लाई कुछ यादें नम ,
कोने में बंधकर करती हैं बीती बातें बयाँ।
किनारे की ही किसी बस्ती में बसकर,
बना सुंदर स्नेहिल यादों का घर वहाँ।
तिनका-तिनका जुडा़ तो
खिल उठेगा चमन,
कस्ती को जीवन की करेंगे फिर से रवाँ।
किनारा भी मिलेगा सहारा भी मिलेगा,
ये धरा गोल है आखिर जाएगा कहाँ?
लेखिका-
गोदाम्बरी नेगी