कितना मस्त
देखता हूं रोज मैं
भीड़ – भाड़ अस्त – व्यस्त
अपने ही शोर में मस्त
एक शहर
बिलकुल बेपरवाह ।
ट्रैफिक का शोर
लोगों का शोर
बाज़ार का शोर
दुकानों का शोर
छोटी बड़ी मशीनों का शोर
शोर ही शोर
शहर के सीने में पसरी
एक चौड़ी सड़क
सड़क के किनारे
छोटा-सा अनजाना सा पेड़
पेड़ के नीचे
ढेर सा सामान
गत्ते , प्लास्टिक , टीन के टूटे – फ़ूटे डिब्बे
फटी – पुरानी खाली बोरियां
पुराने अखबार , फटे कपड़े
टूटे – फ़ूटे बंद बेकार
घरेलू उपकरण
एक बंद बेजान ट्रांजिस्टर
जिस पर थिरकती
उसकी प्रौढ़ उंगलियां ।
इन सबका
एकमात्र मालिक
बढ़ी हुई दाढ़ी
बढ़े हुए अस्त व्यस्त केश
मैले कुचैले कपड़ों में निश्चिंत
मस्त बेफिक्र
बिलकुल बेपरवाह , शहर की तरह ।
रोज देखता हूं
विक्षिप्त कहे जाने वाले उस शख्स को
दुनियादारी से दूर
भीड़ में , भीड़ से दूर
दुनिया जहान की फ़िक्र से
बेज़रूरत ज़िक्र से
जग की आपाधापी से
कष्ट से क्लेश से
राग से द्वेष से
सबसे दूर ।
जनतंत्र से
भ्रष्ट तंत्र से
धूर्तों के मंत्र से
सबसे दूर
निश्चिंत , निर्भय , निश्छल ।
दुनियादारी से दूर
कितना अकेला
शोरगुल के बीच
अपने में व्यस्त
कितना मस्त
अशोक सोनी
भिलाई ।