किंकर्तव्य
उन दिनों मेडिकल कालेज के पाठ्यक्रम में योजना के अनुसार चिकित्सा विद्यार्थियों को गांव – गांव में जाकर वहां की परिस्थितियों , खान – पान , जीवन शैली का अध्ययन और अन्वेषण करना पड़ता था इसके लिए हमारी अभ्यास पुस्तिका में पहले से दिए गए प्रारूप को भर कर जिसमें वहां के घर के मुखिया एवम सदस्यों की संख्या उनका नाम , उनकी आमदनी उस पर आश्रित लोग तथा उनके यहां सुबह से शाम तक क्या खाना खाया पिया जाता था और उनके द्वारा किये गये श्रम के अनुसार उनके चय – अपचय की दर को निर्धारित करते हुए उन्हें सन्तुलित आहार का महत्व समझना होता था ।
हम लोग करीब 20 – 25 चिकित्सा विद्यार्थियों की टोली में एक निश्चित गांव में जाया करते थे । उस गांव के लोग भी आएदिन विद्यार्थियों की आवाजाही के प्रति उदासीन भाव रखते थे । इन्हीं परिस्थितियों में हम लोग एक दिन दोपहर बारह बजे उस गांव में जा कर यत्र – तत्र बिखर गए और वहां की झोपड़ियों में जाकर लोगों से अपने सवाल पूछने लगे । किसी को हमलोगों से बात करने की फुर्सत नही थी और वे बेमन से हमें आगे बढ़ो बाबा वाले भाव से आगे का रास्ता दिखा देते थे ।
एक जगह दलान में खाटों पर डेरा डाले कुछ महिलाएं जोर-जोर से हाथ नचा नचा कर एक दूसरे से लड़ रही थीं , जिनमें एक महिला जोर-जोर से वह उत्तरहिया – उत्तरहिया चिल्ला कर किसी अन्य महिला से लड़ रही थी । मैं उसकी इस भाषा का अर्थ नहीं समझ सका इस पर मैंने अपने साथ गए सहपाठी से उसका अर्थ जानना चाहा तब उसने मुझे बताया जिस प्रकार मां बहन की गालियां संबंध सूचक होती हैं उसी भांति यह महिला दिशा सूचक गाली से किसी को संबोधित कर रही है । यहां उत्तरहिया से उसका तात्पर्य उत्तर दिशा की ओर रहने वाली किसी महिला को लेकर है जिसे वो खराब मानती है । मैंने पुरबिया या पछांह , जमुनापारी , गंगापारी , सरजूपारि आदि दिशाओं या नदियों का नाम ले कर शब्दों को किसी की बुराई या भलाई के अर्थों में गरियाना या उलाहना देते सुना था पर ये उत्तर दिशा को गाली के रूप में प्रयुक्त होते पहली बार सुन रहा था । कई झोंपड़ियों में खोजने के बाद भी मेरे मित्र संतलाल को कोई व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जो उन्हें उनके प्रश्नों का संतोषजनक जनक उत्तर देता यह सोचकर वे गांव में इधर-उधर भटक रहे थे तभी उनकी नज़र उस गांव के बीच में स्थित एक कुएं की जगत के किनारे पर बैठी उन महिलाओं पर पड़ी , इनमें से कुछ बर्तन मांज रही थीं तथा कुछ कपड़े धो रही थीं ।
संतलाल जी बर्तन साफ करती उन दो महिलाओं के पास जा कर जो महिला बर्तन मांजने के बाद उन्हें धो धो कर रख रही थी से अपनी अभ्यास पुस्तिका के प्रारूप में दिये गए प्रश्नों के अनुसार उससे साक्षात्कार प्रारंभ कर दिया तथा नाम पता भरने के बाद अन्य मूल प्रश्नावली पर आ गये । वहीं उसकी बगल मेंं दूसरी युवती उकडूँ बैठ कर अपने कांधों को घुटनों पर टिकाये , अपनी दोनों भुजाओं और लंबे बालों के बीच मे अपना चेहरा छुपाने के लिये सिर को गड़ाये एक कड़ाही रगड़ रगड़ कर मांजने में जुटी थी । सम्भवतः संतलाल जी के अंतहीन व्यक्तिगत प्रश्नों से परेशान होकर उस कढ़ाई मांजने वाली नव युवती ने संतलाल जी की ओर सर झटक कर देखा , कुछ झिझक और शर्म से उसका सांवला रंग रक्तिम कांति पा कर तांबई हो गया , उसने अपने तीखे नयन – नखशों और बड़ी – बड़ी तिरछी आंखें तरेर कर संतलाल जी पर कटाक्ष करते हुए , अपने पार्श्व में रखे धुले कटोरी , गिलासों की धवलता के समान अपनी दन्त पंक्ति से खिलखिला कर बिजली सी चमकाती , अपनी चपल चंचल वाणी में माधुर्य घोलती हुई , अपने बर्तन मांजने वाली राख से सनी दाहिनी हथेली से अपने चेहरे पर आई बालों की लट को माथे की ओर सरकाने के उपक्रम में उसी राख का लेप अपने माथे पर रगड़ती हुई बोली
‘ इत्ता काये पूंछ रै , जौंन शादी करिबे का है हमसे ? ‘
संतलाल जी हतप्रभ हो कर पूर्वानुभव ( देजा वू ) की स्थिति में चले गए उनको उस समय उस युवती से हुई मुलाकात पुरानी सी लगने लगी या शायद राज कपूर की फ़िल्म बॉबी के जिस दृश्य मेंं युवा अवस्था प्राप्त होने पर डिम्प्पल कपाड़िया , ऋषि कपूर के लिए अपने घर के दरवाज़े खोलती है तो आटे से सनी अपनी हथेली से अपने माथे पर आई बालों की लट को हटाने के प्रयास में आटा उसके माथे के दाहिनी ओर की लट और माथे से चिपक कर लगा रहा जाता है और वह कहती है
‘आई एम बॉबी ‘
और नायक हतप्रभ भाव से माथे पर लगे आटे को देखता रह जाता है और बहुत कुछ कहना चाह कर भी हक्का बक्का रह जाता है । कुछ इसी किंकर्तव्यविमूढ़ भाव से सन्त लाल जी उसके माथे और बालों पर लगी बर्तन मांजने वाली राख को अपलक निहारते हुए मौन भाषिक रह दो कदम पीछे हटे और फिर अपनी अभ्यास पुस्तिका को बंद कर , पीछे मुड़ कर चलते चलते गांव से बाहर आ कर एम्बुलेंस में बैठ गए , फिर उन्होंने पलट कर उधर कभी नहीं देखा । संतलाल जी एक आम चिकित्सा विद्यार्थी की भांति अध्ययनशील , सदा मुर्दे , हड्डियों , आतिषदानों में बंद अंगों और बीमार अंगों के किताबी और खुर्दबीनी अध्ययन मनन में डूबे संस्कारी व्यक्ति थे । किसी युवती के ऐसे सम्वाद का सामना करने में उनकी वयतुतपन्नयबुद्धि जवाब दे गई थी । मेरे समेत कुछ और भी सहपाठी इस प्रकरण के प्रत्यक्षदर्शी थे जो कुछ दिनों तक लाड़ में इस घटना का ज़िक्र संतलाल जी से कर के उनकी खिंचाई करते रहते थे , और तब वो अपने माथे पर आई लट को अपनी हथेली से ढीक करने के प्रयास में शर्मा कर अपना चेहरा ढांक लिया करते थे । संतलाल लाल जी मेरे भी परम् मित्रों में से थे और यदि कभी उनकी नज़रों के सामने से मेरा यह लेख गुज़रे गा तो सम्भवतः आज भी उनका हाथ उनके सिर पर बचे बालों की माथे पर गिरी लट को व्यवस्थित करने के प्रयास में अनायास ही उठ जाए गा ।