काष्ठकार हैं कहलाते
कोई कहे बढ़ई कोई कहता है खाती
कोई हमको कहता है सुतार
लकड़ी है हमारी रोजी रोटी
हम कहलाते हैं काष्ठकार
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मिला हमें पूर्वजों से विरासत में
काष्ठकारी का अनूठा धंधा
वनों की कटाई मानव का
दुष्कृत्य
जिसने किया हमारा काम मंदा।
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हम लकड़ी के बाजीगर हैं बंधु
लकड़ी की कृतियां गढ़ते हम
परिश्रम से जीविका कमाते
नहीं करते भिक्षा वृत्ति हम।
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यह माना कि हम हैं निर्धन
काया से मजबूत न हम।
किन्तु सुबह शाम की रोटी
मिल जाती करते हम श्रम।
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कर्मशील हैं अकर्मण्य नहीं हम
जो किस्मत से जोड़ें नाता।
किस्मत के भरोसे हम न बैठें
मेहनत की हैं खाते हरदम।
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कमजोर सही दमदार हैं हम,
है हमारे बाहुबल में दम।
हम न हारेगें मेहनत से,
खुद हारेगा हम ही से श्रम।
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हाथों में देखो चुभ रहा है घर्षण ,
राहें हमारी पथरीली न हैं नर्म।
राहों के रोड़े खुद चुन फेंकेंगे,
खुद के काम में कैसी शर्म
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अपने मरे ही स्वर्ग है मिलता,
समझ लिया जीवन का यह मर्म।
अपने भुजबल पर है हमें भरोसा,
शुद्ध हृदय से करेंगे अपना कर्म।
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रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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