काश!
सिद्ध यदि मैं कर पाता,
अपने होने के होने को।
पुनः अलंकृत कर लेता,
रिक्त हृदय के कोने को।।
फिर के आती ऋतुएं ,
आंचल में मधुमास लिए,
ललचाती फिर भंवरे को ,
कलियां मीठी आस लिए,
चला किसान ले बैलों को ,
फिर खेतों में कुछ बोने को।।
स्वप्न बन गए सपने जो,
हमने मिलकर के था देखा।
छवि कोई ना बन पाई,
रहे खींचते केवल रेखा,
बहुत खो चुके और बचा,
क्या अब खोने को।।
जय प्रकाश श्रीवास्तव पूनम