“काश मैं अमिताभ बच्चन का अंतर्मन होता…” (हास्य)
मैंने एक कहानी लिखी और मेरा अपने अंतर्मन से वार्तालाप शुरू हो गया।
अंतर्मन – “छी! क्या है ये?”
मोहित – “कहानी है और क्या है?”
अंतर्मन – “ये सवाल जैसे जवाब देकर मेरा पैटर्न मत बिगाड़ा करों! 4/10 है ये…इस से तुम्हारा नाम जुड़ा हुआ है। पढ़ के लोग क्या कहेंगे?”
मोहित – “ठीक है, मैं कुछ चेंज करता हूँ।”
बार-बार बदलाव के बाद भी अंतर्मन पर कुछ ख़ास अंतर नहीं पड़ा…
अंतर्मन – “किसी सिद्ध मुनि का घुटना पड़ना चाहिए तुम्हारे खोपड़े पर तभी कुछ उम्मीद बनेगी। 4.75/10 हुआ अब!”
मोहित – “ये दशमलव की खेती का लाइसेंस कहाँ मिलता है? कहानी में सात बार बदलाव कर चुका हूँ। अब और शक्ति नहीं है।”
अंतर्मन – “हाँ तो मुझे क्यों बता रहे हो? कैप्सूल लो…जिसका एड पढ़ने में मज़ा आता है।”
मोहित – “मैं यही फाइनल कर रहा हूँ!”
अंतर्मन – “अरे यार तुम तो बिना बात गुस्सा हो जाते हो…रिलैक्स, अपना ही मन समझो! हमारा एक समझौता हुआ था। याद है? मैंने कहा था कि अगर मुझे कोई रचनात्मक काम 6/10 से नीचे लगेगा तो वो फाइनल नहीं होगा। तुमने लंबे समय तक माना भी वो नियम तो अब क्या दिक्कत है?”
मोहित – “इतनी टफ रेटिंग कौन करता है?”
अंतर्मन – “तेरे भले के लिए ही करता हूँ। तेरे नाम से जुड़े काम अच्छे लगें।”
मोहित – “भक! इस चक्कर में कितने आईडिया मारने पड़े मुझे पता है? आज से कोई नियम-समझौता नहीं!”
अंतर्मन – “काश मैं अमिताभ बच्चन का अंतर्मन होता।”
मोहित – “फिर पूरी ज़िन्दगी में 4 फिल्में करते अमिताभ साहब। इतना सर्व चूज़ी अंतर्मन लेके फँस जाते…कच्छों के डिज़ाइन तक में उलझ जाता है और बात अमित जी की करता है!”
अंतर्मन – “मतलब ये कहानी फाइनल है?”
मोहित – “हाँ! हाँ! हाँ!”
अंतर्मन – “एक मिनट, बाहर की शादी के शोर में सुना नहीं मैंने। ये ‘हा हा हा’ किया या तीन बार हाँ बोला?”
गुस्से में मोहित के जबड़े भींच गये।
अंतर्मन – “अच्छा सुनो ना…”
मोहित – “हम्म?”
अंतर्मन – “6/10 हो सकता है। अंत में एक कविता जोड़ दो तो उसके ग्रेस मार्क्स मिलेंगे।”
मोहित – “इस कहानी के साथ काव्य का मतलब नहीं बनता और…”
अंतर्मन – “प्लीज ना जानू!”
मोहित – “अच्छा बाबा ठीक है। जाओ बाहर जाके खेलो और ज़्यादा दूर मत जाना।”
समाप्त!
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Art – Ester Conceiçao
#ज़हन