काश! पुनः लौटें दिन…
चिट्ठियाँ नहीं आतीं अब
अपनों की
आते हैं कॉल
औपचारिकता निभाने
जबकि चिट्ठियाँ सिर्फ़
सम्बन्ध निभाने का जरिया नहीं
अपितु परिचायक होती थीं कि
लिखी गयीं वह
भीतर से उठने वाली हूक़ के सहारे
प्रेम को परिभाषित करने
काश! पुनः लौटें वह दिन
*सतीश तिवारी ‘सरस’,नरसिंहपुर (म.प्र.)