काश! तुम रूबरू होते !
यूँ तो हो जाता है दीदार,तुम्हारी तस्वीर से मगर ,
क्या लुत्फ़ होता गर तुम हमारे रूबरू होते ।
एक झलक या महज तुम्हारा साया ही सही ,
कुछ तो होता हासिल,अरमान अधूरे न होते।
वोह मीठी सी निगाह और तबस्सुम तुम्हारा ,
हम भी थे जिनके कायल,हम पर मेहरबान होते।
हसरत तुम्हें नवाजने की ,तुम्हारी इबादत की थी,
काश ! हम तुम्हारे कद्रदानों की फेहरिस्त में होते।
तुमसे गुफ्तगू -ऐ- आरजू थी बस कुछ लम्हों की ,
मुलाकातों के वो नगीने हमारे पास भी जमा होते ।
तुम्हारी बलाएँ लेने को कज़ा के मुकाबिल हो जाते ,
तो तुम्हारी ओर उस गुस्ताख के इशारे न होते।
मगर हाय यह कम नसीबी और बेरहम कुदरत ,
आ गयी हमारे दरम्याँ, वर्ना तुम हमारे रूबरू होते।