काव्य संग्रह
रेत की तरहा ये फ़िसल रही है
ज़िंदगी हाथों से निकल रही है ।
-अजय प्रसाद
संवर जाती है
धूप जब बर्फ़ सी पिघल जाती है
मजदूरों के पसीने में उतर आती है।
ठंड जब कभी हद गुजर से जाती है
झोपड़ीयोंं में जाकर ठिठुर जाती है ।
बारिश जब आग बबुला हो जाती है
जा कर गांवों,कस्बों में ठहर जाती है।
अरे!मौसम की मार झेलने में माहिरों
तुम्हारी वज़ह से तिजोरियां भर जाती है ।
ये कुदरत का कानून भी कमाल है यारों
वक्त के साथ ये ज़िंदगी संवर जाती है
-अजय प्रसाद
किस दौर में जी रहें हैं ये क्या हो रहा है
अवाम बेफ़िक्र है और सियासत रो रहा है।
मिलकियत जिनकी,हैं मातम वही मनाते
और वक्त बहती गंगा में हाथ धो रहा है।
मुश्किलें तो मशगूल हैं महफिलें ज़माने में
मसीहा मूंद कर आँखे चुपचाप सो रहा है।
गज़ब अंदाज़ है गरीबी में जीने वालोँ का
होने देता है उसके साथ,जो कुछ हो रहा है ।
तू क्यों अजय इतनी बेगारी करता रहता है
बंज़र गजलों में हालात के बीज बो रहा है ।
-अजय प्रसाद
***
होती है क्या तरक्की किसी गरीब से पूछो
कैसे कमाई जाती है दौलत अमीर से पूछो
क्या-क्या करने पड़ते हैं परिवार चलाने को
छिन गई हो जिसकी रोज़ी बदनसीब से पूछो।
रहनुमा रहम दिल हो ऐसा कभी नहीं हुआ
किस कदर ये खलती है ,टूटती उम्मीद से पूछो ।
छिन ली रिसालो की हुकूमत बदलते वक्त ने
हश्र क्या हुआ लिखने बालों का,अदीब से पूछो ।
खामोश खड़ा देखता है रोज़ अपने आस पास
किस तरह उड़ती है धज्जियां तहजीब से पूछो ।
मौत मुतमईन है अजय आदमी के इन्तेजाम से
दुआ,दवा ,ईलाज है क्यूँ बेअसर,मरीज़ से पूछो ।
-AJAY PRASAD
केवल चाह लेने से किसी का बुरा नहीं होता
जो हक़ीक़त में है वो कभी झूठा नहीं होता ।
लाख कोस ले कोई किसी को उम्र भर यारों
कुछ भी याँ रब की मर्ज़ी के बिना नहीं होता ।
खुदगर्जी खुश रहती खुशामद पा कर बेहद
और खुद्दारी कभी किसी पे टिका नहीं होता ।
राहें बदल दे जो हर ठोकर पे दौर-ए-सफ़र
और कुछ भी हो किसी का रहनुमा नहीं होता ।
झेलने पड़ते हैं न जाने क्या-क्या सितम यहाँ
आसानी से कोई पीर,पैगंबर,मसीहा नहीं होता ।
-अजय प्रसाद
अजीबोगरीब खौफ़नाक मंज़र देख रहा हूँ
चलते फिरते खुबसूरत खंडहर देख रहा हूँ ।
मिलतें हैं मुस्कुराकर हाथों में हाथ डाले ये
मगर ज़मीं दिल की बेहद बंज़र देख रहा हूँ ।
किश्तियाँ डूबती कहाँ अब किनारों पे आके
साहिलों से सूखता हुआ समंदर देख रहा हूँ ।
आइने यारों चिढाने लगते हैं देखकर मुझे
रोज़ खुद का ही अस्थि पंजर देख रहा हूँ ।
क़त्ल कर देता है जो कैफ़ियत बचपन से
हर बच्चे के हाथ में वो खंजर देख रहा हूँ ।
मेरी हस्ती भी अजीब दो राहे पर खड़ी है
हुई है अपनी गती साँप छ्छुंदर देख रहा हूँ
-अजय प्रसाद
निकल गया है साँप लकीर पीट रहें हैं
मर चुकी है आत्मा शरीर घसीट रहें हैं ।
ज़िंदगी है तो ज़िंदा रहने का हुनर भी
कर हम सब बस उसिको रिपीट रहें हैं ।
कहाँ तकदीर में है सबके लिए मकान
घर किसी के ,फुटपाथ और स्ट्रीट रहें हैं ।
बस तो गई है आबादी बेशुमार शहरों में
दिलो-दिमाग में मगर अब कंक्रीट रहें हैं ।
हैं तरक्कींयाँ नसीबों में उन्हीं नौकरों के
जो भी अपने मालिकों के फ़ेवरीट रहें हैं ।
-अजय प्रसाद
नहीं लिखता मैं गज़लें गाने के लिए
हैं सिर्फ़ ये बहरों को सुनाने के लिए ।
कभी मात्रा मैनें गिराया नहीं कयोंकि
बहरें तो हैं बस लय मिलाने के लिए ।
बहर में लिखनेवालों को मेरा सलाम
लिखता हूँ मैं दिल बहलाने के लिए ।
जिन्हें हो पसंद वो पढ़ें,करें अलोचना
है नापसंद को रास्ता दिखाने के लिए ।
मैंने किसी से कोई राय नहीं मांगा है
न किसी से कहा मुझे अपनाने के लिए ।
अब कितना बकबक करेगा तू अजय
कौन आ रहा है तूझे मनाने के लिए ।
-अजय प्रसाद
केवल चाह लेने से किसी का बुरा नहीं होता
जो हक़ीक़त में है वो कभी झूठा नहीं होता ।
लाख कोस ले कोई किसी को उम्र भर यारों
कुछ भी याँ रब की मर्ज़ी के बिना नहीं होता ।
खुदगर्जी खुश रहती खुशामद पा कर बेहद
और खुद्दारी कभी किसी पे टिका नहीं होता ।
राहें बदल दे जो हर ठोकर पे दौर-ए-सफ़र
और कुछ भी हो किसी का रहनुमा नहीं होता ।
झेलने पड़ते हैं न जाने क्या-क्या सितम यहाँ
आसानी से कोई पीर,पैगंबर,मसीहा नहीं होता ।
-अजय प्रसाद
पज़िराई=welcome इज़ाफा=increase
बड़ी बेरुखी से वो मेरी पज़िराई करता है
जैसे कि बकरे को हलाल कसाई करता है ।
भूल जाता हूँ मैं उसके हर वार को दिल से
जब भी मुस्करा कर मेरी कुटाई करता है ।
अज़ीब दस्तूर है इश्क़ में आजकल दोस्तों
सोंच समझकर आशिक़ बेवफाई करता है ।
हो जाता है इज़ाफा उसके चाहनेवालों में
जब कभी भी कोई उसकी बुराई करता है ।
बड़े आराम से रहते हैं मसले मेरे मुल्क के
क्योंकि यहाँ शासन ही अगुआई करता है ।
-अजय प्रसाद
रक्खा है मैंने आस्तीन में साँप पाल के
मिलना मुझसे तुम ज़रा देख भाल के ।
वैसे तो हूँ मैं दिखने में बेहद शरीफ मगर
रोक देता हूँ तरक्कींयाँ मैं अड़ंगे डाल के ।
मौके के मुताबिक मुखौटे भी हैं मेरे पास
और अभिनय भी करता हूँ मैं कमाल के ।
शक्ल-ओ-सूरत भी है इन्सानो के जैसा
मगर फ़ितरत मेरी है यारों बस हलाल के ।
कोसता हूँ कसम खा के मरते दम तक
रह न जाए दिल में कोई शिकवे मलाल के
-अजय प्रसाद
इश्क़ पे बदनुमा दाग है ताजमहल
फक़त कब्रे मुमताज है ताज महल ।
होगा दुनिया के लिए सातवां अजूबा
मेरे लिए तो इक लाश है ताज महल ।
फना जो खुद हुआ नहीं मुहब्बत में
उस की जिंदा मिसाल है ताजमहल ।
लोग खो जाते हैं इसकी खूबसूरती में
भूल जाते हैं कि उदास है ताजमहल ।
किसी की मौत पे इतना बड़ा मज़ाक
प्रेम का इक बस उपहास है ताजमहल ।
या खुदा इतनी खुदगर्जी आशिकी में
शाहजहाँ का मनोविकार है ताजमहल ।
अब छोड़ो भी तुम अजय गुस्सा करना
समझ लो कि इतिहास है ताज महल ।
-अजय प्रसाद
ऐसा नहीं कि गज़ल में सिर्फ़ बहर ज़रूरी है
खुद को बयां करने का भी हुनर ज़रूरी है
रन्ज़ोगम और इश्क़ के सितम ही नहीं काफी
होना दिल पर दुनिया का कहर ज़रूरी है।
बारीकी से बर्दाशत करना है हालात को
और जमाने पे बेहद पैनी नज़र ज़रूरी है ।
अदीबों की इज्जत ,रिसालों से मोहब्बत
उम्दा शायरों के शेरों का असर ज़रूरी है ।
नकल नही ,इल्म के वास्ते पढ़ना ज़रूर
मीर,मोमिन गालिब,दाग ओ जफर ज़रूरी है ।
ज़िक्रे हुस्नो इश्क़,आशिक़ो वेबफ़ा ही नहीं
कैफ़ी और दुष्यन्त के साथ सफ़र ज़रूरी है ।
गज़लों में गर तुझे कहनी है बात सच्चाई से
पहले अजय होना इक सच्चा बशर ज़रूरी है
-अजय प्रसाद (बहर =छ्न्द बद्ध होना)
अवाम के लिए है!
मेरी गजलें अदीबों नहीं ,अवाम के लिए है
उनके जज्बातों को देने पहचान के लिए है ।
जिन्हें ढूंढना हो मज़ा वो महफिलों में जाएँ
मेरी लेखनी तो बस जिंदा वियाबान के लिए है ।
मुझे पढनें वाले बेहद मामूली हों शक़ नहीं है
मगर उनकी सोंच बेहतर हिन्दुस्तान के लिए है ।
वक्त के मुहँ पर थूक कर जो है जिंदा यहाँ
उन बदनसीबों की मेहनत धनवान के लिए है ।
मोह,माया,छ्ल,कपट,हिंसा व लोभ के बाद
दिल मे जगह अब कहाँ सच्चे ईमान के लिए है ।
-अजय प्रसाद
लौट आया हूँ कुछ दिनों के लिए अपने शहर में
देखूँ कितना बदल गया हूँ मै लोगों की नज़र में ।
रास्ते ,गलियाँ, चौराहे,बाज़ार वगैरह सब वही है
बस आ गई है बेहद तब्दीली नये दौर के बसर मे।
अब न वो लहजा, न सलीका,न ज़ज़्बे मोहब्बत
मिलते हैं,मुस्कुराते है पर खलीश लिये ज़िगर में ।
इस कदर काविज़ हो गई खुदगर्ज़ी इबादतों में
आती ही नहीं दुआएँ अब तो किसी असर में ।
सीख लो चलन अजय अब तुम भी नए दौर का
ढूंढना बेकार है ज़ाएकाएआबे हयात यूँ जहर में ।
-अजय प्रसाद
खुदा भी आजकल खुद में ही परेशान होगा
ऊपर से जब कभी वो देखता इन्सान होगा ।
किस वास्ते थी बनाई कायनात के साथ हमें
और क्या हम बनकर हैं सोंचकर हैरान होगा ।
किया था मालामाल हमें दौलत-ए-कुदरत से
सोंचा था कि जीना हमारा बेहद आसान होगा ।
खूबसूरती अता की थी धरती को बेमिसाल
क्या पता था कि हिफाज़त में बेईमान होगा ।
दिलो-दिमाग दिये थे मिलजुलकर रहने को
इल्म न था लड़ने को हिन्दु मुसलमान होगा ।
खुदा तो खैर खुदा है लाजिमी है दुखी होना
देख कर हरक़तें हमारी शर्मिन्दा शैतान होगा ।
-अजय प्रसाद
काश !
कभी कभी मैं सोंचता हूँ
आसपास जानवरो को देख कर
काश ! मैं भी आदमी न हो कर
अगर जानवर होता ।
तो कितना बेहतर होता ।
न भूत-भविष्य की चिंता
न वर्तमान से खफ़ा ।
न धर्म,न जाति,न कोई रंगभेद
न ऊँचे का दंभ न नीच होने का खेद ।
न करता किसी की चापलूसी
न किसी से किसी की कानाफूसी ।
न ओहदे का अहंकार ,न कोई भ्रष्टाचार
न रैली,न चुनाव, न वोट ,न कोई सरकार ।
न धन की लालसा, न छ्ल ,कपट प्रपंच
न नेता,न अफसर,न मुखिया,न सरपंच ।
न रिश्तों में खटपट ,न रिश्तेदारी की झंझट
न नौकरी,न व्यापार,न पढ़ालिखा बेरोजगार ।
न फ़ैशन की चाह, न लोक लाज़ की परवाह
न ख्वाहिशें,न फ़रमाइशें ,न ज़ोर,न आज़माईशें ।
न सुख में इतराना, न दुख में आँसू बहाना
हर दिन ,हर हाल में बस अपने दम पर जीना ।
कुदरत के करीब,न कोई अमीर, न कोई गरीब
न है कोई खुशनसीब ,न है कोई बदनसीब ।
सब जी रहें हैं ,जो भी पैदा हुए जिस हाल में
न सजदे,न शिकायतें,न किसी भी मलाल में ।
(क्रमशः)
-अजय प्रसाद
आज़ाद गज़लें
जिंदगी यूँ ही जज्बात से नहीं चलती
फक़त उम्दे खयालात से नहीं चलती ।
रुखसत होता हूँ रोज घर से रोज़ी को
गृहस्थी चंदे या खैरात से नहीं चलती ।
मुसलसल जंग है जरूरी जरूरतों से
हसीं ख्वाबो एह्ससात से नहीं चलती ।
रज़ामंदी रूह की लाज़मी है मुहब्बत में
बस जिस्मों के मुलाकात से नहीं चलती ।
कब्र की अहमियत भी समझो गाफिलों
दुनिया सिर्फ़ आबे हयात से नहीं चलती ।
-अजय प्रसाद
प्यार करना तू अपनी औकात देख कर
हैसियत ही नहीं बल्कि जात देख कर ।
दिल और दिमाग दोंनो तू रखना दुरुस्त
इश्क़ फरमाना घर के हालात देख कर ।
होशो हवास न खोना आशिक़ी में यारों
ज़िंदगी ज़ुल्म ढाती है ज़ज्बात देख कर ।
करना तारीफे हुस्न मगर कायदे के साथ
खलती है खूबसूरती मुश्किलात देख कर ।
क्या तू भी अजय, किसको समझा रहा
डरते कहाँ हैं ये लोग हादसात देख कर
-अजय प्रसाद
‘वो’ जिनके नाम से शायरीयाँ सुनाते हो
क्या सचमुच तुम इतना प्यार जताते हो।
प्यार कभी शब्दों में वयां होता है क्या
फ़िर क्योंकर भला खुद पर इतराते हो।
तारीफ़ तन-बदन तक सीमित रहता है
तो रिश्ता रूह का है क्यों बतलाते हो ।
फिदा हो जाते हो उसकी अदाओं पर
खुबसूरती पे ही उसके तुम मर जाते हो।
हक़ीक़त है कि तुम्हें प्रेम हुआ ही नहीं
बस दैहिक आकर्षण में उलझ जाते हो ।
अव्यक्त प्रेम सर्बोत्तम है जान लो तुम
जिसे बिना अभिव्यक्ति के ही निभाते हो ।
-अजय प्रसाद
इश्क़ पे बदनुमा दाग है ताजमहल
फक़त कब्रे मुमताज है ताज महल ।
होगा दुनिया के लिए सातवां अजूबा
मेरे लिए तो इक लाश है ताज महल ।
फना जो खुद हुआ नहीं मुहब्बत में
उस की जिंदा मिसाल है ताजमहल ।
लोग खो जाते हैं इसकी खूबसूरती में
भूल जाते हैं कि उदास है ताजमहल ।
किसी की मौत पे इतना बड़ा मज़ाक
प्रेम का इक बस उपहास है ताजमहल ।
या खुदा इतनी खुदगर्जी आशिकी में
शाहजहाँ का मनोविकार है ताजमहल ।
अब छोड़ो भी तुम अजय गुस्सा करना
समझ लो कि इतिहास है ताज महल ।
-अजय प्रसाद
मेरी आँखों में तेरे ख्वाब रहने दे
उम्र भर को दिले बेताब रहने दे।
कुछ पल को ही सही , मान मेरी
मुझे अपना इंतखाब रहने दे ।
सारे नजराने ठुकरा दे गम नहीं
अपने हाथो में मेरा गुलाब रहने दे ।
जानता हूँ राज़ तेरी ख़ामोशी का
सवाल तो सुन ले, जबाब रहने दे ।
अब तो हक़ीक़त का कर सामना
सपनों से निकल, किताब रहने दे ।
-अजय प्रसाद
भूखे पेट तो प्यार नहीं होता
खाली जेब बाज़ार नहीं होता ।
पढ़ा-लिखा के घर पे बिठातें हैं
यूँही कोई बेरोज़गार नहीं होता ।
बेलने पड़ते हैं पापड़ क्या क्या
आसानी से सरकार नहीं होता ।
आजकल के बच्चों से क्या कहें
सँग रहना ही परिवार नहीं होता ।
दिल में गर खुलूस न हो अजय
तो फ़िर सेवा,सत्कार नहीं होता।
-अजय प्रसाद
नयी गज़ल से उसे नवाज़ दूँगा
ज़माने को अलग एहसास दूँगा ।
मुहब्बत को नया मिज़ाज दूँगा।
खामोश रह कर आवाज़ दूँगा ।
बहुत खुश रहूँगा उसे भुला कर
आशिक़ी को नया रिवाज़ दूँगा ।
ज़िक्र नहीं करूँगा ज़िंदगी भर
फिक्र को नया ये अंदाज़ दूँगा ।
रश्क करेंगे रक़ीब भी मेरे साथ
नफ़रत करने को समाज दूँगा ।
ज़ुर्रत कर नहीं सकता दिल भी
अजय इतना उसे रियाज़ दूँगा ।
-अजय प्रसाद
खुदा भी आजकल खुद में ही परेशान होगा
ऊपर से जब कभी वो देखता इन्सान होगा ।
किस वास्ते थी बनाई कायनात के साथ हमें
और क्या हम बनकर हैं सोंचकर हैरान होगा ।
किया था मालामाल हमें दौलत-ए-कुदरत से
सोंचा था कि जीना हमारा बेहद आसान होगा ।
खूबसूरती अता की थी धरती को बेमिसाल
क्या पता था कि हिफाज़त में बेईमान होगा ।
दिलो-दिमाग दिये थे मिलजुलकर रहने को
इल्म न था लड़ने को हिन्दु मुसलमान होगा ।
खुदा तो खैर खुदा है लाजिमी है दुखी होना
देख कर हरक़तें हमारी शर्मिन्दा शैतान होगा ।
-अजय प्रसाद
और होंगे तेरे रूप पर मरने वाले
हम नही है कुछ भी करने वाले।
मुझको कबूल कर तू मेरी तरहा
हम नहीं है इंकार से डरने वाले ।
हाँ चाहता हूँ तुझे ये सच है मगर
हद से आगे नहीं हैं गुजरने वाले।
नये दौर का नया आशिक़ हूँ मैं
हम नहीं कभी आहें भरने वाले।
लाख कर ले कोशिश अजय तू
आदतें नहीं हैं तेरे सुधरने वाले।
-अजय प्रसाद
अपनी महबूबा को मुश्किल में डाल रहा हूँ
उसकी मोबाईल आजकल खंगाल रहा हूँ ।
क्या पता कि कुछ पता चल जाए मुझे यारों
क्यों मैं उसकी नज़रों में अब जंजाल रहा हूँ।
उसकी गली के कुत्ते भी मुझ पर भौंकते हैं
कभी जिस गली में जाकर मालामाल रहा हूँ।
जिसके निगाहें करम से था मैं बेहद अमीर
फिर अब किस वज़ह से हो मैं कंगाल रहा हूँ।
बेड़ा गर्क हो कम्बखत नये दौर में इश्क़ का
था कभी हठ्ठा क्ठ्ठा अब तो बस कंकाल रहा हूँ
-अजय प्रसाद
अतीत से निकल वर्तमान में आ
फ़िर ज़िंदगी के जंगे मैदान में आ।
कब तक रोएगा तू नाकामियों पर
जी चुका जमीं पे आसमान में आ ।
दूसरों पे तोहमत लगाने से पहले
जा झांक के अपने गिरेवान में आ।
वादा है चुकाऊँगा मोल जाँ दे कर
मुझसे इश्क़ करके,एहसान में आ ।
झूठ के पाँव नहीं होते,सच है मगर
मत किसी झांसे के बेइमान में आ ।
-अजय प्रसाद
साया-ए-मजबुरी में जो पले थे
लोग वही बेहद अच्छे भले थे ।
आपने जश्न मनाया जिस जगह
वहीं रातभर मेरे ख्वाब जले थे।
हुआ क्या हासिल है मत पूछिये
क्या सोंच के हमने चाल चले थे।
हो गए शिकार शिक़्स्त के यारों
सियासत के पैंतरे ही सड़े गले थे ।
छिड़क गए है नमक ज़्ख्मों पर
‘वो’जो मरहम लगाने निकले थे।
-अजय प्रसाद
इश्क़ में भी अब इंस्टालमेंट है
आशिक़ी में भी रिटायरर्मेंट है ।
कितने मच्यौर हुए लैला-मजनू
लीविंग रिलेशन अपार्टमेन्ट है ।
सस्ता उत्तम टिकाऊ प्यार का
अब तो अलग डिपार्टमेन्ट है ।
चेह्र पर हँसी औ दिल में खुन्नस
आजकल तो ये एडजस्टमेंट है ।
अंदाज़ा लगाता है तू तस्वीरों से
कितना गलत तेरा ये जजमेंट है ।
कर ले एन्जॉय जी भर आज ही
क्या पता कल मौत अर्जेन्ट है
-अजय प्रसाद
संवर जाती है
धूप जब बर्फ़ सी पिघल जाती है
मजदूरों के पसीने में उतर जाती है।
ठंड जब भी हद से गुजर जाती है
झोपड़ीयोंं में जाकर ठिठुर जाती है ।
बारिश जब कभी गुस्से में आती है
कई गांवों औ कस्बों में ठहर जाती है।
ओ मौसम की मार झेलने में माहिरों
तुम्हारी वज़ह से तिजोरियां भर जाती है ।
यारों कुदरत का कानून भी कमाल है
वक्त के साथ ही ज़िंदगी संवर जाती है
-अजय प्रसाद
‘वो’ जिनके नाम से शायरीयाँ सुनाते हो
क्या सचमुच तुम इतना प्यार जताते हो।
प्यार कभी शब्दों में वयां होता है क्या
फ़िर क्योंकर भला खुद पर इतराते हो।
तारीफ़ तन-बदन तक सीमित रहता है
तो रिश्ता रूह का है क्यों बतलाते हो ।
फिदा हो जाते हो उसकी अदाओं पर
खुबसूरती पे ही उसके तुम मर जाते हो।
हक़ीक़त है कि तुम्हें प्रेम हुआ ही नहीं
बस दैहिक आकर्षण में उलझ जाते हो ।
अव्यक्त प्रेम सर्बोत्तम है जान लो तुम
जिसे बिना अभिव्यक्ति के ही निभाते हो ।
-अजय प्रसाद