काव्य का आस्वादन
काव्य में संदर्भ में, पुराने काव्यशास्त्रिायों से लेकर वर्तमान काव्यशास्त्री ‘आस्वादन’ शब्द का प्रयोग किसी-न-किसी रूप में करते आ रहे हैं। स्वाद का सीधा संबंध जिह्वा से होता है। लेकिन काव्य के संदर्भ में आस्वादन की प्रक्रिया मात्र स्वादेंद्रियों तक ही सीमित नहीं रहती। उसकी प्रक्रिया हर प्रकार की इंद्रियों द्वारा संपन्न होती है। चूंकि इंद्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान का अनुभव अंततः मस्तिष्क द्वारा ही होता है, अतः हर प्रकार का इंद्रियबोध आस्वादन का विषय बन जाता है। इसलिए काव्यशस्त्रिायों ने अगर किसी भी प्रकार की सामग्री को आस्वादन का विषय बनाया है तो इसमें कोई अचरज नहीं। लेकिन काव्य में आस्वादन सामग्री क्या है तथा इसके आस्वादन की प्रक्रिया किस प्रकार संभव होती है? इन प्रश्नों का समाधान जब तक वैज्ञानिक तरीकों से नहीं किया जाता, तब तक आस्वादन की समस्या, समस्या बनी रहेगी।
काव्य में आस्वादन सामग्री के रूप में किसी विशेष समाज की विशेष मान्यताएँ, आस्थाएँ, परंपराएँ कवि के अनुभव एवं उसकी वैचारिक अवधारणाओं के साथ निहित होते हैं, जिनका आस्वादन एक सामाजिक छंदों, अलंकारों, भाषा-प्रयोगों, ध्वनियों आदि के माध्यम से करता है। यदि हम भारतीय सामग्री का विवेचन करें तो यह सामग्री हमें धार्मिक, सामाजिक, सांप्रदायिक, व्यक्तिवादी, राष्ट्रीय एवं मानवीय मूल्यों के रूप में आदिकाल से लेकर वर्तमान काल की मान्यताओं को अपने भीतर विचारधाराओं के रूप में सहेजे हुए मिलती है। रामायण, महाभारत जैसे महाकाव्यों का आस्वादन [ भारतीय जनमानस की धर्म के प्रति आस्था होने के कारण ] जितना किया गया है, उतना किसी अन्य भारतीय ग्रंथ का नहीं। इन महाकाव्यों के समांतर मुस्लिम संप्रदाय के बीच ‘कुरान’ का आस्वादन भी सर्वाधिक है। हिंदू तथा मुस्लिम संप्रदायों के उक्त महाकाव्यों में आस्वादन के कारणों का यदि हम पता लगाएँ तो इनके आस्वादन के पीछे इन संप्रदायों के वे धार्मिक संस्कार रहे हैं, जिनके अंतर्गत दोनों संप्रदायों ने ईश्वर के अवतार के रूप में किसी-न-किसी राजा या पैगंबर में आत्म-सुरक्षा की तलाश की है। आत्म-सुरक्षा के उक्त विचारों के कारण ही यह महाकाव्य आस्वादन का विषय बने हैं।
लेकिन किसी कृति का आस्वादन रुचिकर और रसमय है, मात्र इसी आधार पर उस कृति का सही मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। मूल्यांकन की कसौटी तो यह होनी चाहिए कि कृति के आस्वादनोपरांत लोक या समाज पर उसका क्या प्रभाव दिखलायी दिया? उस कृति से लोक को कितनी और किस प्रकार की आत्म-सुरक्षा मिली?
काव्य में प्रस्तुत आस्वादन सामग्री कितनी भी रोचक, चटपटी, अलंकारों से लैस और किसी संप्रदाय, जाति, वर्ग आदि को कितना भी तुष्ट करने वाली हो, परंतु यदि उसका आस्वादन कुप्रभावी है तो वह सामग्री अपनी समस्त विशेताओं के बावजूद अमंगलकारी, अमानवीय ही मूल्यांकित की जानी चाहिए। ‘ढोर गँवार सूद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी’ जैसी आस्वादन सामग्री को धार्मिक और सांप्रदायिक आस्थाओं से जोड़कर हमारे कथित रसवादी, पाठक या श्रोता के कथित हृदय में चाहे जिस भक्तिरस या ईश्वर-रस की वर्षा कराएँ, लेकिन आस्वादनोपरांत लोक या समाज की जो रसदशा बनेगी, वह कितनी मंगलकारी और लोकोन्मुखी होगी? इसका अनुमान सहज लगाया जा सकता है। यह रसदशा हमें उस अमानवीयता की ओर ले जाएगी, जिसमें वजह-बेवजह पशु, शूद्र और नारी को गँवार समझकर प्रताड़ित किया जाता रहेगा और इस प्रताड़ना के सारे-के-सारे अधिकार हर अत्याचारी पुरुष के पक्ष में चले जाएँगे। ‘होगा वही राम रचि राखा’ जैसी काव्य-सामग्री के आस्वादन को एक तथाकथित भक्तिभाव से ओतप्रोत समाज भले ही रसिकता और कथित सहृदयता के साथ स्वीकार ले, लेकिन वह सामाजिक जिसमें जरा-सी भी बुद्धि का समावेश है, उसको उक्त आस्वादन सामग्री की रसात्मकता, सौंदर्यात्मकता में साम्राज्यवाद की दुर्गंध आने लगेगी। जिसे आज का कवि इस प्रकार अभिव्यक्ति दे तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए-
1. कैसी मशाल लेके चले तीरगी में आप
जो रोशनी थी, वो भी सलामत नहीं रही।
2. जो भी आता है मसीहा बनकर
सलीब हमको सौंप जाता है।
3. रात-भर रामधुन के हल्ले में
जाने क्या-क्या हुआ मुहल्ले में?
ठीक इसी प्रकार रीतिकालीन काव्य में वर्णित आत्मा और परमात्मा के रूप में कष्ण और राधा का कथित पवित्र मिलन तब कितना पवित्र रह जाएगा, जबकि आत्मा से परमात्मा के मिलन की एक पाठक यह दशा देखेगा कि आत्मा के बेर जैसे रूप संतरे जैसे होते जा रहे हैं, कुचों के उभार स्तूपाकार हो चले हैं, जाँघों के बिंब केले के उल्टे रखे हुए तने की तरह बन रहे हैं। काव्य-सामग्री के माध्यम से वर्णित उक्त दशा के आस्वादनोपरांत पाठक के मन में कैसी रसवर्षा होगी, और उसक कौन-सा अंग आर्द्र हो उठेगा, क्या हमारे कथित आनंदवादी रसाचार्य इसका उत्तर दे सकते हैं?
यदि आस्वादन सामग्री कथित रस-परिपाक के स्थान पर तर्क और विचार की कसौटी पर परखे जाने की सामर्थ्य से युक्त मानवीय मूल्यों से लैस और लोक-जीवन की मूल समस्याओं का हल खोजने वाली है तो वह आस्वादनोपरांत मानव में छुपे संघर्ष के तत्त्वों को कुरेदेगी, उन्हें अत्याचारी षड्यंत्रकारी वर्ग के प्रति विरोध और विद्रोह से सिक्त करेगी। शोषण, यातना, अराजकताविहीन समाज के निर्माण-कार्य में सहयोग प्रदान करेगी। इसलिए किसी भी काव्य-सामग्री का आस्वादन लोकमंगल को साधनावस्था के नाम पर किसी अलौकिक ब्रह्मस्वरूप, रामस्वरूप, ईसा-स्वरूप, पैगंबरस्वरूप को यदि तलाशने के लिए प्रेरित करता है तो यह तलाश मानवीय मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में निरर्थक ही रहेगी। मानव द्वारा मानवस्वरूप की स्थापना ही लोक या समाज को लोकोन्मुखी, समाजोन्मुखी मंगलकारी व्यवस्था दे सकती है। कुल मिलाकर किसी भी काव्य-सामग्री के आस्वादन के माध्यम से, संप्रदाय, जाति, साम्राज्य, अनाचार और अनीति को खत्म करने का प्रयास ही सही अर्थों में मुक्ति और मोक्ष का प्रयास होगा।
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001