काले दिन ( समीक्षा)
समीक्ष्य कृति: काले दिन
लेखक: डाॅ बलराम अग्रवाल
प्रकाशक: मेधा बुक्स, नवीन शाहदरा, दिल्ली-32
प्रकाशन वर्ष: 2023 ( द्वितीय संस्करण)
मूल्य: ₹ 100/- (पेपरबैक)
‘काले दिन’ सुप्रतिष्ठित वरिष्ठ लघुकथाकार डाॅ बलराम अग्रवाल जी का लघुकथा संग्रह है। इस संग्रह में कुल 67 लघुकथाएँ हैं जिनमें से अधिकांश को जनवरी 2020 से अक्टूबर 2020 के मध्य सृजित किया गया है। कुछ रचनाएँ 2018-2019 की भी हैं जिनको इस संग्रह का अंश बनाया गया है।
सर्वप्रथम चर्चा करते हैं इस कृति के शीर्षक की। इस कृति का शीर्षक ‘काले दिन’ क्यों रखा गया?इसका उल्लेख लेखक ने अपने आमुख- ‘काले और डरावने दिन’ में किया है।हम सभी जानते हैं कि जिस कालखण्ड में इस कृति की अधिकांश लघुकथाएँ रची गई हैं, वह इक्कीसवीं सदी का मानवजाति के लिए सबसे भयावह समय था।सिर पर गठरी लादे शहरों से अपने गाँवों की ओर पैदल पलायन करते प्रवासी मजदूर, जिनके साथ में बच्चे,बुजुर्ग और महिलाएँ, दम तोड़ती व्यवस्था एवं आपदा में अवसर तलाशते लोग।अब अगर ऐसे दिनों को ‘काले दिन’ न कहा गया तो यह सत्य से मुँह फेरने वाली बात होगी और एक सच्चा साहित्यकार ऐसा नहीं कर सकता। डाॅ अग्रवाल ने इस पुस्तक के आमुख में बड़े ही बेबाक अंदाज में इसका उल्लेख किया है।
इस संग्रह की पहली लघुकथा ‘दरख्त’ है, जिसे आवरण के पार्श्व में भी स्थान दिया गया है। यह एक ऐसी लघुकथा जिसका हमारे जीवन से गहरा नाता है। समाज में आए दिन ऐसी घटनाएँ देखने को मिल जाती हैं ,जहाँ माँ-बाप दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं।यह समस्या न तो शहरी और ग्रामीण क्षेत्र की है और न निम्न वर्ग या संभ्रांत वर्ग की अपितु सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक है। हम खुद तो अपने बुजुर्गों की सेवा-शुश्रुषा करने को तैयार नहीं हैं और यदि कोई अन्य उनकी मदद करे तो इसे अपनी बेइज्जती समझते हैं। “हमारा बुजुर्ग पड़ोसी के टुकड़ों पर पले,यह बेइज्जती हम सह नहीं सकते।” जिस तरह से इस लघुकथा का अंत किया गया है, उससे हमाम में सारे नंगे दिखाई देने लगते हैं।”मजिस्ट्रेट आँखें फाड़कर उनकी ओर देख उठा।अकेला और बेगाना-सा, ऐसा ही एक दरख्त उसके अपने बरामदे में भी पड़ा है,वर्षों से! अपने खुद के भाई भी उसकी ओर से नजरें फेर कर निकल जाते हैं!!”
पूँछनामा, खैरियत की खातिर, शाहीन से मुलाकात: शुरुआती तीन सवाल, घेराबंदी,कारोबारी,दरकार प्यार की और आँधी ऐसी लघुकथाएँ हैं जो हमें शाहीनबाग की घटना से जोड़ती हैं।मजहब के नाम पर भोली-भाली आवाम को बहला-फुसलाकर इकट्ठा करके रोटियाँ सेकने वालों की और अपनी सियासत चमकाने वालों की कोई कमी नहीं है। समाज में धरना-प्रदर्शन के नाम पर अशांति और अव्यवस्था फैलाने वालों के साथ सख्ती से पेश आना आवश्यक होता है। ‘आँधी’ लघुकथा शाहीनबाग के धरने को खत्म करने को लेकर उठाए गए कदमों से जुड़ी है। “बल्लियाँ और शामियाने ही उखड़े हैं, किसी शख्स को कोई नुकसान नहीं पहुँचा। दुआ करो सलामती के लिए! शुक्र मनाओ कि सड़क से ही गुजर गई आँधी,घरों में नहीं घुसी।”
महिलाओं को समाज में अनेक तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है और महिला यदि अकेली और कामकाजी हो फिर तो अंतहीन समस्याएँ उसे घेरने की कोशिश करती हैं।मदद करने के नाम पर उठे हाथ उसके शरीर को नोचने की कोशिश करने लगते हैं और आँखें उसे अपने जिस्म को टटोलती हुई महसूस होती हैं।अपने घर-परिवार से दूर दूसरे शहर में जब वह काम के लिए जाती है तो उसे कैसे-कैसे लोगों का सामना करना पड़ता है ‘बुलबुले’ लघुकथा में इस समस्या को उठाया गया है।कामिनी का मकान मालिक को दिया गया जवाब न केवल सशक्त होती नारी का प्रतीक है वरन कथ्य को नवीन रूप देने की कला भी सिखाता है।” वह संयत स्वर में बोली, आते ही खुद को नंगा करना और मुझको नोचना- खसोटना शुरू कर देते हो। विनय बाबू, पोर और नाखून सिर्फ उँगलियों में ही नहीं होते…..आँखों में भी होते हैं!”
लघुकथा भले ही कलेवर की दृष्टि से लघु हो,भाव और संवेदना के स्तर पर उसकी व्यापकता असीम है। “नये रेट” एक ऐसी ही लघुकथा है जो समाज की एक सच्चाई को तीन-चार पंक्तियों में सामने लाती है, जिससे हर एक बेटी का पिता दो-चार होता है। वैसे यह समस्या बड़ी उलझी हुई है।इसमें गलती केवल लड़के पक्ष के लोगों की ही नहीं है, लड़की पक्ष भी उतना ही जिम्मेदार है। सभी को अपनी बेटी के लिए एक ऐसा वर चाहिए जो सरकारी नौकरी करता हो।इतना ही नहीं, ऐसी सरकारी नौकरी जिसमें भरपूर ऊपरी आमदनी हो।बेटी के लिए ऐसा वर चाहिए फिर दूल्हे के रेट तो अस्सी लाख होंगे ही।
मजहब के नाम पर समाज की हवा को विषाक्त करने वालों की कोई कमी नहीं है।जिधर देखिए उधर ऐसे लोग मिल जाएँगे जो हरेक घटना को मजहबी रंग में रँग देते हैं और लोगों को बरगलाने का काम शुरू हो जाता है।किसी भी सभ्य समाज के लिए यह स्थिति बहुत ही खतरनाक होती है।हत्या चाहे जुनैद की हो, चाहे जीवनराम की। दोनों की स्थितियों में मौत तो मानवता की ही होती है पर जिनकी आँखों पर मजहबी कट्टरता का चश्मा चढ़ा होता है,उनकी सोच अलग होती है। ‘फासीवाद’ एक ऐसी रचना है जिसमें लेखक ने ‘रचनाकर्म’ के विभिन्न चरणों के उल्लेख के माध्यम से इस धार्मिक कट्टरता को अभिव्यक्त किया है।
आज समाज में आधुनिकता के नाम पर अनेक तरह की विकृतियाँ जन्म ले रही हैं।ऐसा लगता है कि लोग मानसिक बीमारी का शिकार हो रहे हैं। इतना ही नहीं ,ऐसे लोग अपनी पसंद-नापसंद को संविधान के आधार पर सही ठहराने का प्रयास भी करते हैं। वे चाहते है कि समाज भी उनके उस काम को मान्यता दे जो समाज की दृष्टि में वर्ज्य है। ‘मल्टी-लाइनर’ एक ऐसी ही लघुकथा है जिसमें इसी सामाजिक विकृति को उभारा गया है। “छोटे, लोग-लुगाई वन-लाइनर्स में होता है।मल्टी-लाइनर्स जेंडर नहीं देखा करते।”
सफलता सभी के लिए मायने रखती है पर सफलता को पाने के तरीके और साधन सबके अलग-अलग होते हैं। प्रायः महिलाओं पर यह इल्ज़ाम लगता है कि वे अपनी देह-यष्टि के सहारे बहुत जल्दी और आसानी से कामयाबी हासिल कर लेती हैं और बात जब रुपहले पर्दे या टेलीविज़न की हो फिर तो कहने ही क्या? ‘स्पर्द्धा’ एक ऐसी ही लघुकथा है जिसमें सफलता के लिए पुरुष और महिला दोनों एक ही युक्ति का सहारा लेते हैं। ” फिल्मों में काम लड़कियों को जल्दी और आसानी से मिल जाता है।” “अब तो लड़के भी उसी रास्ते काम पाने लगे हैं।” यह एक ऐसी हकीकत है जो चमक-दमक की रुपहले पर्दे की दुनिया के घिनौने रूप को सामने लाती है।
‘बिके हुए लोग’ राजनीतिक दलों की उस सच्चाई को अपने तरीके से सामने लाती है,जिससे हम सभी परिचित हैं। रैलियों और प्रदर्शनों में इकट्ठी होने वाली भीड़ का न कोई चरित्र नहीं होता और न कोई सोच। वे केवल वही नारे लगाते हैं जो उनके आका उन्हें रैली के लिए खरीदकर ले जाते समय सिखाते हैं।ऐसे मौके बेकारी से जूझ रहे लोगों के लिए वरदान होते हैं। फ्री का खाना-पीना मिलता है और पैसे साथ में। “उनके आकाओं ने जब पिला-खिलाकर पेमेंट पकड़ाई,तब, नोट मुट्ठी में दबा,तर गले से वे फुसफुसाए-“ऐसे मौके…. जिन्दाबाद! जिंदाबाद!!”
संग्रह की अंतिम प्रस्तुति है-‘तितलियाँ मरा नहीं करतीं’। इस लघुकथा में लेखक ने प्रेम के उदात्त रूप का चित्रण किया है।जीवन में बहुत कुछ हालात पर निर्भर करता है, सब कुछ अपने हाथ में नहीं होता। इसलिए कई बार ऐसे फैसले लेने पड़ते हैं जिनके लिए हम तैयार नहीं होते हैं।रूहानियत और रूमानियत से भरा प्यार कभी मरा नहीं करता।”तितलियाँ मरा नहीं करतीं अमित।हालात के हाथों मार दी जाने के बावजूद जिंदा रहती हैं वो।”
‘दरख्त’ से शुरू हुआ ‘काले दिन’ का सिलसिला ‘तितलियाँ मरा नहीं करतीं’ पर एक टीस के साथ खत्म हो जाता है। टीस ,पुस्तक की कहानियों के समाप्त हो जाने की।और बरबस उमाशंकर जोशी की कविता की पंक्तियाँ याद आ जाती है- ‘नभ में पाँती बँधी बगुले की पाँखें,वह तो चुराए लिए जातीं मेरी आँखें।’ संग्रह की प्रत्येक लघुकथा हमें एक ऐसे भाव-लोक की सैर कराती है, जहाँ हरेक समझदार और साहित्य-प्रेमी पाठक जाना चाहता है।
‘काले दिन’ की लघुकथाओं से गुजरते हुए एक बात स्पष्ट हो जाती है कि मँजा हुआ लेखन एक अलग ही तरह का मुहावरा गढ़ता है। संवेदना की जो अनुभूति इस संग्रह की कहानियाँ कराती हैं,वह वर्णनातीत है। छोटे-छोटे वाक्य और सहज-सरल भाषा, कथ्य और विषय की नवीनता, प्रस्तुतीकरण का पैनापन इस संग्रह की ऐसी विशेषताएँ हैं जो इसे पठनीय ही नहीं, संग्रहणीय भी बनाती हैं। लघुकथा लेखन के नवोदितों के लिए इस तरह की कृतियाँ मार्गदर्शक एवं दिशाबोधक हो सकती हैं यदि वे इनका अवगाहन करें, और डाॅ बलराम अग्रवाल जी के ही शब्दों में ” ‘चीनी उत्पाद’-गैर-टिकाऊ, गैर-भरोसेमंद और गैर-जिम्मेदार।” से बचकर रहें।
समीक्षक,
डाॅ बिपिन पाण्डेय