कालूराम
बचपन में ये नाम रंग को देखकर उसके मामाजी ने मजाक मजाक में दे डाला था जो एक सफल व्यवसायी तो थे ही, साथ ही संगीत में भी निपुण थे।
वो स्वयं भी ताम्र वर्ण के थे। उनका अनकहा संदेश तो शायद ये होगा कि मेरी ओर देखो और याद रखना कि अपने रंग को मेरी बातों की तरह विनोदी नजरों से ही देखना।
कालू, उस वक़्त, बात में छिपे इस अर्थ को नहीं समझ पाया, ये उम्र भी नहीं थी कि गूढ़ बातों को समझा जा सके।
पर रंग अब उसे समझ आने लगे थे और अब वो मन ही मन दुसरों के साथ अपनी चमड़ी का मिलान करने लगा था।
एक बात और भी हुई जब बड़ी बहन ने उसकी माँ को मज़ाक मजाक में ये कहा कि इसको मेरी ससुराल मत भेज देना मुझे शर्म आएगी।
कालू, भोलेपन में अपनी बहन से पूछ बैठा कि, वो कौन से साबुन से नहाती है कि उसका रंग एक दम दूध की तरह चमकता है!!!
दीदी ये प्रश्न सुनकर थोड़ा विचलित हो गयी और अपनी पहली बात को हल्का करने की कोशिश में उसके सर पर हाथ फेर कर बोली, अरे मैं तो मज़ाक कर रही थी, काले तो राम के रखवाले होते हैं।
पर नन्हे दिमाग में एक बात घर तो कर ही चुकी थी।
इन सब बातों को सुनने के पहले,
वो अपनी तरफ से बेफ़िक्र रहा करता था , नन्हें क़दमों से आस पड़ोस के घरों में जाकर बोल आता था कि एक बनारस का पंडा आया है, कुछ भिक्षा मिलेगी क्या?
पड़ोसी उसकी इन भोली बातों को सुनकर खुश होकर खिलखिला पड़ते ,तो कुछ नन्हें महाराज को घर से कुछ मिठाई , फल भी दे दिया करते थे।
जब थोड़ी अक्ल आयी तो ये धंधा तो उसने बंद कर दिया पर अब छुप छुप कर आईने में अपनी शक्ल देख लेता था।
रंग के साथ उसकी नाक भी असामान्य रूप से चौड़ी थी,
एक बार किसी ने उससे मज़ाक में कहा भी था कि तुम्हारी नाक तो ऐसी है कि कोई इस पर खाट डाल कर, चाहे तो बैठ भी जाये।
खाट के पायों का बोझ उसकी नाक पर अब यदा कदा चुभने लगा था।
फिर एक बार किसी ने बताया कि आवेश और हँसी के वक़्त उसके नथुने फुल कर और भी बड़े होने लगते हैं।
ये एक नई मुसीबत खड़ी हो गयी!!
कई बार उसने ध्यान से उस वक़्त नथुने सिकोड़ने की कोशिश भी की तो फिर हंसी रुक पड़ी और कभी आवेश बोल उठा कि नथुने चौड़े होंगे तो ही वो आएगा।
उनकी इस लंगोटिया यारी के आगे वो बेबस था।
नाक को कई देर तक उंगलियों से दबाकर रखने की कोशिश भी की, पर मुँह से सांस लेने मे वो बात नज़र भी नही आयी ,और तो और, शाम के वक़्त ऐसा करते देख कमबख्त एक मच्छर अपना ठिकाना बनाने भी चला आया।
किसी तरह गला खखार कर उससे जान छुड़ाई।
छठी की परीक्षा के समय, रोल नंबर के हिसाब से एक बेंच पर तीन अलग अलग कक्षा के बच्चों को जब बैठाया गया तो कालू पहली बेंच पर प्रश्न पत्र लेकर पढ़ने के पहले ,एक दूसरी कक्षा के बच्चे के गोरे हाथों को देखने लगा , फिर सवालों पर नज़र दौड़ाई तो वे थोड़े धुँधले नज़र आये।
उसकी पांचवी कक्षा में लाया प्रथम स्थान रंगों के बोझ के तले कुछ पल के लिए दब गया।
संयुक्त परिवार में जब वो अपने घर के सदस्यों पर नज़र दौड़ाता, तो चचेरे भाई ज्यादा अपने से दिखते और अपने सगे भाई गोरे होने की वजह से दूर के रिश्तेदार लगते।
वैसे उसके घर में चाचा ताऊ के बच्चों में कभी कोई फर्क नही किया गया, पर कालू को कौन समझाता उस वक़्त।
कपड़े सिलवाते वक़्त भी ये ध्यान रखा जाता कि कोई रंग उसके रंग की हँसी न उड़ा बैठे।
रंगों के चक्कर मे फंसे कालू की एक और मुसीबत आने वाली थी। उसकी जुबान भी खूबसूरत बच्चों के साथ बात करते वक़्त आत्मविश्वास का साथ छोड़ देती , ठीक उसी तरह जैसे युद्ध में कर्ण अपनी शस्त्र विद्या भूल जाता।
अच्छी बात ये थी कालू ने हार नहीं मानी थी,
वो भी किसी कोने में उस छोटी उम्र में अपने अनुभव भी खँगाल रहा था कि
-किस तरह वो एक दौड़ में जीत गया था!
-एक प्रश्न सबसे पहले हल कर बैठा!
-उसको अपना सबक याद था और बाकी बच्चे भूल गए थे!
इसी चेतना के सहारे ही उसे उसकी क्षमता के अनुसार लड़ना था।
जंगल के नियम उसके लिए तो नहीं बदलने वाले थे।
ये समस्या उसकी अकेले की थी भी नहीं।
पर ये वो जरूर चाहता था कि विद्यालय में एक विषय रंग पर भी हो। ताकि नजरों से निकली निःशब्द तलवारें अपनी म्यान में लौट जाएं।
नजरिया इतने सालों के बाद भी कहाँ बदला है?
कहीं कोई एक कालू फिर आईने में खुद को तलाश रहा है,
किसी को सिर्फ आँख ,कान , नाक देखकर ही एक उभरती नेत्री दिख जाती है ,
तो कहीं एक महान कलाकार अपनी रंगों की दीवानगी में चमड़ी बदल खुद को एक बेहद कमजोर आदमी साबित कर जाता है!!!