कार्यालय
कार्यालय
—————– नया कार्यालय और उसके कोने में
एक छोटा सा कमरा,
उस कमरे की निःशब्द शांति,
–यह सब कुछ अब
कितना अजीब लगता है।
अपनी कुर्सी पर चिपके हुए,
शेष बंधुओं की तरह
शांतभाव, असूचित शाम तक
बरसों पुराने मृत पन्नों से उलझे हुए,
चुपचाप बैठे रहना, अजीब लगता है।
साढ़े नौ बजते ही लोग आने लगते हैं,
यह कार्यालय खुलने का समय होता है।
शाम को लोग एक-एक कर जाने लगते हैं,
घड़ी पर नज़र जाती है,चार बजे होते है।
मैं भी सोचता हूं,
‘रहने दो शेष काम,कल के लिए’, और
चला जाता हूं, थोड़ी ही दूर,
एक एकांत कमरे में, जो मेरा आवास होता है।
और यह सब ,कुछ अजीब लगता है।***************************************************** –राजेन्द्र प्रसाद गुप्ता, मौलिक/स्वरचित।