कार्यक्रम का लेट होना ( हास्य-व्यंग्य)
कार्यक्रम का लेट होना ( हास्य-व्यंग्य)
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कार्यक्रम लेट होता ही है। लेट होने के लिए ही बना है ।सच पूछिए तो लेटा रहता है। समय हो जाता है ,लोग कहते हैं कि भाई कार्यक्रम को उठाओ। लेकिन आयोजक कहते हैं अभी लेटा रहने दो। जब बहुत ज्यादा लोग हो जाते हैं, तब कार्यक्रम लेटने के स्थान पर उठ कर बैठता है। चल कर आता है ।
एक परंपरा चल पड़ी है कि कार्यक्रम है, तो लेट होगा ही। अगर मान लीजिए, किसी को रात को नौ बजे कार्यक्रम आरंभ कराना है तब या तो सात बजे का कार्यक्रम लिखा जाएगा या बहुत हुआ तो आठ बजे का कार्यक्रम लिखा जाएगा । कई लोग तो ऐसा मानते हैं कि लिखने के नाम पर समय कुछ भी लिख दो । कुछ कार्यक्रम हैं, जो दस से पहले शुरू नहीं होते हैं । घंटा -दो घंटा लेट हो जाना मामूली बात है ।
कई लोग समय पर पहुंच जाते हैं। उनको सब लोग ऐसे देखते हैं जैसे यह बहुत खाली हैं। भाई क्या आपको कोई काम नहीं रहता ? जो कार्ड में समय देखा और चल दिए। ऐसे लोग दो-चार कार्यक्रमों में समय पर पहुंचते हैं और फिर अपनी फजीहत होने से बचने के लिए कार्यक्रमों में देर से आना शुरू कर देते हैं । ऐसा करने से उन्हें भी समाज में सम्मान मिलना शुरू हो जाता है और लोग समझते हैं कि यह भी हमारी तरह लेटलतीफ व्यक्ति हैं ।
कार्यक्रमों में समय पर पहुंचने पर सबसे भारी मुसीबत यह है कि आयोजक नहीं मिलते ।कुर्सियों वाला कुर्सी बिछा रहा होता है । कहीं झाड़ू लग रही होती है । कहीं बिजलीवाला बल्ब लगा रहा होता है। जो लोग काम में लगे हुए होते हैं, वह खाली खड़े व्यक्ति से पूछते हैं “क्यों भाई खाली किस लिए खड़े हो ? तुम्हारे जिम्में क्या काम है?” आने वाले को संकोच के साथ कहना पड़ता है कि मैं कार्यक्रम में मेहमान हूं ।तब उससे कहा जाता है कि भाई बड़ी जल्दी आ गए। घड़ी देखो। सात बजे का प्रोग्राम था ,अभी तो सिर्फ आठ बजे हैं।
कई बार तो जिस स्थान पर आयोजन होना है, वहां ठीक समय पर पहुंच जाओ तो ताला बंद मिलता है । यही पता नहीं लगता कि हम किसी गलत जगह तो नहीं आ गए ? इसलिए इन सब बातों को देखते हुए उचित यही है कि पॉंच बजे का कार्यक्रम है तो साढ़े छह पर घर से चला जाए ताकि सात से पहले पहुंच जाया जाए।
भारतीयता किसी भी रूप में चाहे देखने को न मिले ,लेकिन लेटलतीफी के मामले में लोग गर्व से कहते हैं, इंडियन-टाइम है। सब चलता है । इंडियन टाइम अर्थात भारतीय समय की परिभाषा यही है कि हम लोग लेट लतीफ हैं। इंग्लिश टाइम माने मिनट से मिनट मिला लो। अपने देश में ऐसे कार्यक्रम जो समय पर शुरू हों और समय पर समाप्त हो जाएं, अब ढूंढने से भी अपवाद रूप में ही देखने में आते हैं । अर्थात इंग्लिश टाइम वाले लोग केवल संग्रहालय में रखे जाने योग्य रह गए हैं।
लेटलतीफी के क्रम में एक तर्क यह आया है कि जो संस्थाएं अपना कार्यक्रम घंटा -दो घंटा लेट शुरू करती हैं, उनसे पूछो कि भाई लेट क्यों हो रहे हैं कार्यक्रम ? तो उनका जवाब होता है कि अब लोग लेट आते हैं । हम कार्यक्रम शुरू करके क्या करें। अब दो चार लोगों के बीच में तो कार्यक्रम आरंभ हो नहीं सकता। इसलिए घंटा-डेढ़ घंटा इंतजार करते हैं ।जब लोग आ जाते हैं तब कार्यक्रम शुरू होता है। लोगों की मानसिकता ही ऐसी है । यानि जिसको लेटलतीफी है, वह अपने को कभी गलत नहीं कहेगा। और कुछ नहीं तो सारा दोष जनता के माथे पर ही मढ़ दिया जाएगा।
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लेखक:रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर(उत्तर प्रदेश )
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