कामय़ाबी
वह जो खुद महफ़िलों की श़ान था।
पर अंदर ही अंदर कुछ परेशान था।
दौल़त श़ोहरत इज़्जत सब उसने कमाई।
पर इस तरह ज़िंदगी उसको रास़ ना आई।
इस द़ौर में उसने अपने उसका भला चाहने वाले खो दिए।
कुछ ज़िगरी दोस्त कुछेक दिल़ी रिश़्ते उससे अलग हुए।
सब कुछ हास़िल करने की च़ाहत में उसने अपनों को नज़रअंदाज़ किया।
उसके ज़ेहन पर अपनी दौल़त और श़ोहरत का नश़ा सा छाता गया।
आज वो जब महफ़िलों से लौटता है।
अपने आपको अपने सूने से महल जैसे घर में अकेला सा पाता है।
उसकी आँखों की नींद जैसे उड़ गई हो और दिल में कऱार खो सा गया है।
शायद इस कामय़ाबी के नश़े में अपनी खुदी को गवाँ कर अपने ज़मीर को भी खो चुका है।