काबिल नही तेरे
ना उन्हे अब नाम अच्छा लगता हैं।
ना मेरा कोई काम अच्छा लगता हैं।।
मैं अगर गुनगुनाऊ गाना प्यार से तो।
ना वो गाना अच्छा लगता हैं।।
मेरे सर की भी कसम खा लेते हैं यूँही।
ना जाने क्यूँ कर रहे हैं व्यवहार अनजानों सा।।
जिस चहरे के लिए तरसती थी आँखे उनकी।
अब वो चेहरा भी अनजान नजर लगता हैं।।
मानता हूँ मैं काबिल नही तेरे शायद।
मगर क्या मेरा बुरा हाल उन्हे अच्छा लगता हैं।।
ललकार भारद्वाज