कान वाली मशीन
हर रोज की तरह
वह आज भी बड़ी जल्दी में था
आखिर शीघ्र पहुंचकर उसे
ऑफिस का काम निपटाना था
वही छाता वही साईकिल
वही रास्ता वही मंजिल
पुराने चश्मे से झांकता
जीवन का गूढ़ अनुभव
पके बालों से झांपता
अपनी आयु का वैभव
विचारों की तंद्रा में डूबा
इस बार तो बेटे से कहूँगा
मुझे भी अब साथ रहने दे
या गाँव में बच्चों को लाने दे
जिनकी प्यारी शरारतों में वो
शेष जीवन भी काट सकेगा
उमर भर की थकानो को
उन बच्चों संग बाँट सकेगा
अकेलेपन की खाईयों को
बचपन से वह पाट सकेगा
अचानक पीछे से टक्कर लगी
टूटी सी साईकिल लुढ़कने लगी
घण्टियों का शोर नहीं सुन सका
मीठे से सपने और नहीं बुन सका
कुछ ही पलों में भीड़ जमने लगी
उस बूढ़े पिता की सांसें थमने लगी
लड़खड़ाती आवाज ये कहने लगी
अरे!मेरे बेटे से कोई ये कह देना
अब तू ‘कान वाली मशीन’ न लेना
अन्तिम बातों पर अब मौत का पहरा था
क्यों कि…………………?
बूढ़ा बाप कान से,बेटा ह्रदय से बहरा था