कान लगे होते है दीवारों में
जिस्म छूकर सब गुजर गए
रूह छू गया है वो हजारों में
मैं ढूढ़ रहा था उसे दर बदर
जमीन औ आसमाँ सितारों में
पढ़े लिखें क्या समझेंगे बात
मेरी बात ही रही है गंवारों में
पता चला मकान में जाकर के
कान से लगे होते है दीवारों में
पतझड़ सी रही आँखें मेरी ही
सदा ढूढ़ रही रौशनी बहारों में
माशुको के बाज़ार बहुत देखें
पर वो ना मिला उन बाजारों में
काश की उसको भी पता हो
मेरी रूह छू गया वो हजारों में
दे रही हुकुम मेरी भी रूह आज
जैसे सजी धजी बैठी सरकारों में
दिल मिलता नहीं किसी बाज़ार
नहीं बिकता यह डॉलर दीनारों में
अशोक सपड़ा हमदर्द की क़लम से
धर्मक्रान्ति समाचारपत्र नयी दिल्ली