काठ की हांडी
आज की कविता ‘काठ की हांडी’में काठ की हांडी आम आदमी का प्रतीक है जिसको बार बार प्रयोग करके फेंक दिया जाता है।वैसे ‘काठ की हांडी चढै न बारंबार’एक लोकोक्ति भी है उसे स्वार्थ का प्रतीक माना गया है।
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काठ की हांडी
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काठ की हांडी चढ़ेगी
उसमें हमारी दाल पकेगी
वह दाल नहीं गलेगी
काठ की जो हांडी है
वह कितनी बार चलेगी?
यह ग़रीब की हांडी होगी
इसमें न तो भात बनेगा
न ही इसमें दाल गलेगी
नून तेल हल्दी डलेगी
फिर भी दाल नहीं गलेगी
काठ की हांडी न चढ़ै बारंबार
दाल भात चावल सब
गलेगी एक ही बार
काठ की हांडी जलेगी हर बार
जब भी पकेगा कुछ इसमें
नई चढ़ेगी काठ की हांडी हर बार
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राजेश’ललित’