कागज़ के सपने
ये ज़िन्दगी की किताब मेरी,
कुछ किस्से पराये, कुछ अपने,
ये स्याह भरी रातें कलम मेरी,
कहानियां बुनते, ये मेरे कागज़ के सपने,
कभी शब्द खुशियों के मिलते,
कभी ग़म से कागज़ भिगोते,
तो कभी विरह में वो याद आती,
कभी इश्क़ में हम मोती पिरोते,
कभी नाव बनती कागज़ के सपनो की,
यादों के समंदर में कभी खाती हिलोरे,
कभी तूफ़ानों में फ़सती बेसहारा,
टूटती बिखरती अक्सर सवेरे,
कभी रंगों से रंग देता हूँ सपने,
कभी सरगम सजाता हूँ उनमें,
कभी लिखूं कहानी संजीदा पेंचीदा,
कभी किरदार होते बहुतेरे,
ना जाने कितने ही कागज़ चिपकाए,
पर डरता हूँ कहीं, ये फटे ना बिखरें,
अजब हैं मेरे ये कागज़ के सपने,
मेरी ज़िंदगी की किताब के,
ये कुछ अधूरे से पन्ने ……..
©ऋषि सिंह ‘गूंज’