कागज़-किताब की दुनिया/ डिजिटल दुनिया
कागज़-किताब की दुनिया/ डिजिटल दुनिया
विगत वर्षों में जिस तेज़ी से किताबों का संसार विलुप्त-सा होता जा रहा था,सोशल मीडिया ने पढ़ने की आदतों के पुनः विकास के लिए नए मार्ग खोले है जो परम्परागत तो नहीं पर साहित्य के विकास के लिए शुभ संकेत है | इधर कुछ वर्षों से पुस्तक मेले में किताबों के लिए एक हुजूम-सा उमड़ा जा रहा था,जो पिछले कुछ वर्षो की तुलना में बढ़ रहा है ,जहाँ ऑन लाइन (एमेजॉन और फ्लिपकार्ट), डिजिटल पुस्तकों(किनडल) का बाजार कागज़ी पुस्तकों के अस्तित्व के लिए चिंता का विषय बना हुआ है।
वहाँ इस मेले की उपयोगिता पर ही प्रश्नचिह्न लग रहे थे |हालाँकि ई-बुक और ई-मैगजीन के ज़माने में कागज़ी किताबों के लिए पाठकों का आना सुखद था जो कि सोशल मीडिया के बाजार का ही प्रभाव है जिसने हमारी पढ़ने की आदतों को बदला किताबों से हमने पुन: दोस्ती का हाथ बढ़ाया| पुस्तक मेले में कई नये पुराने लेखक जो सोशल मीडिया के कारण ही अस्तित्व में आ सके उनकी किताबों के विमोचन हुआ |(नीलिमा चौहान ‘पतनशील पत्नियों के नोट्स’ )पुस्तक मेला में स्थापित, छोटे-बड़े लेखकों से रूबरू होने का मौका भी था तो बच्चों के बुक-स्टाल में जिस तरह से वृद्धि हो रही है वह भी उनमें किताबों के प्रति प्रेम जागृत करने का प्रयास सराहनीय है| सोशल मीडिया ने किताबों के प्रचार-प्रसार के लिए सकारात्मक ढंग से भूमिका निभाई है जिसे समझने की जरूरत है ।
“इस पीढ़ी को रचना के नये माध्यम और मंतव्य दोनों ही एक साथ सामने उपस्थित युगांतर के दवाबों में ढल रहे हैं और उसे हिंदी के बहुसंख्यक साहित्य प्रेमियों के लिए अपरिचित और अबूझ बल्कि कई बार असहिष्णु व उग्र बना रहे हैं | आज साहित्य के मुद्रण माध्यम और पुस्तकीय आकार अप्रासंगिक हो रहे हैं ना कि साहित्य पिछड़ रहा है |नए माध्यमों की तरह इन्टरनेट और वेब के उपयोग से सोशल मीडिया मतलब फेसबुक ,ब्लॉग ,वेबसाईट वगैहरा …साहित्य की अप्रासंगिकता नहीं उसका कायाकल्प है …साहित्य के साथ नई पीढ़ी के रिश्ते को समझने और परिभाषित करने की पहली कोशिश इस कायाकल्प को ही देखने समझने की होनी चाहिये|”
कायाकल्प के बदलते स्वरुप को समझने लिए के यदि सबसे प्राचीन विधा कथा साहित्य की बात की जाये तो नीलेश मिश्रा का रेडियो कार्यक्रम ‘यादों का इडियट बॉक्स–याद शहर की कहानी’ कार्यक्रम का उदाहरण ले सकते हैं जो रेडियो के सर्वाधिक लोकप्रिय कार्यक्रमों में से एक है।
ये कहानियाँ यूट्यूब और नीलेश मिश्रा की वेबसाइट पर भी उपलब्ध है और करीब 20 देशो में यह कार्यक्रम इंटरनेट के माध्यम से सुना जा रहा है। रेडियो पर कहानी-सुनाना पहले भी होता था किन्तु इसे इन्टरनेट का माध्यम मिल जाने के बाद यह अत्यंत लोकप्रिय व सफल भी हुआ है और नवोदित कहानीकारों को मौका भी मिला| साहित्य का यथार्थ शाश्वत,सर्वजन हिताय यहाँ भी निहित है,अत:“समय के साथ साहित्य का स्वरुप बदला भी है विकसित भी हुआ और नया विकास भी हुआ| प्रारंभ से ही मीडिया और साहित्य आमतौर से जुड़े हुए थे ——माध्यम बदलने से नाटक में ,साहित्य में एक नई विधा आई –
इसी प्रकार लघु कथा, लघु कवितायें, हाइकू अस्तित्व में आ रहे हैं और लोकप्रिय भी हो रहे हैं |
एक परिभाषा के अनुसार, “सोशल मीडिया को परस्पर संवाद का वेब आधारित एक ऐसा अत्यधिक गतिशील मंच कहा जा सकता है जिसके माध्यम से लोग संवाद करते हैं, आपसी जानकारियों का आदान-प्रदान करते हैं और उपयोगकर्ता जनित सामग्री को सामग्री सृजन की सहयोगात्मक प्रक्रिया के एक अंश के रूप में संशोधित करते हैं”
हाल के कुछ वर्षों में सूचना क्रांति व इंटरनेट क्रांति के प्रसार के बाद एक बहुत बड़ी संख्या में हर क्षेत्र का युवा वर्ग सोशल मीडिया से जुड़ रहा है। यह युवा वर्ग स्वतन्त्र विचारों का समर्थक है और हर एक विषय पर बेबाकी से अपनी राय रखता है। सोशल मीडिया के प्रादुर्भाव से पहले जनता को टेलिविज़न-चैनलों व अखबारों की खबरों पर पूर्ण रूपेण निर्भर रहना पड़ता था सोशल मीडिया हर व्यक्ति को सार्वजनिक रूप से अपनी बात बेबाकी से रखने का मौका देता है।इन्टरनेट से लेकर 4G ANRIOD फोन तक को हर वर्ग का युवा बखूबी इसका प्रयोग करना जानता है |डिजिटल मनी के इस युग में आज साहित्य का स्वरुप भी डिजिटल होने की प्रक्रिया से गुज़र रहा है|सोशल मीडिया पर इसका जोर-शोर से प्रचार- प्रसार भी हो रहा है|इन्टरनेट, वेबलॉग ,फेसबुक, वाट्सएप ब्लॉग, यूट्यब ,ट्विटर,इन्स्टाग्राम आदि कई ऐसे सोशल माध्यम है जहाँ प्रयोक्ता अपने को अभिव्यक्त करने को तत्पर है, वह अपने ज्ञान ,भाव, अनुभव और विचारों को रचनात्मकता प्रदान कर रहा है|पर सोशल मीडिया की सबसे बड़ी चुनौती भी यही है कि सोशल मीडिया की ‘वॉल’ पर रचनात्मकता के रंग बड़ी जल्दी ही धुंधले हो जाते है| साहित्य जिस तीव्रता से अभिव्यक्त होता है, संचारित होता है ,उतनी ही तीव्रता से बुलबुले के सामान विलुप्त भी हो जाता है जो साहित्य के अस्तित्व के लिए खतरा भी है|लेखक को माध्यम और पाठक वर्ग दोनों को ध्यान में रखना ज़रूरी है |
सोशल मीडिया ने लेखन के पारंपरिक बन्धनों को, तानाशाही आलोचना को खुली चुनौती दी है|साहित्य में विचारों की स्वतंत्रता ,बिना किसी ‘वाद’ या ‘विवाद’ में पड़े सोशल मीडिया आपको खुला मंच प्रदान करता है|जहाँ पहले रचनाकार अपनी रचना किसी मित्र को भी दिखाने में हिचकिचाता था आज सोशल मीडिया पर अपने भावों-विचारों को धड़ल्ले से बेबाक लिख देता है और यह संभव हो सका उसके ‘आभासी मीडियाई स्वरुप’ के कारण|अभिव्यक्ति की ये बेबाकी साहित्य के स्वरुप के सन्दर्भ में प्रमुख चुनौती भी है-“यह मीडिया पूरा ह्यूमन नेचर बदल रहा है।
जिस तरह से हिंदी पट्टी में कॉफी हाउस संस्कृति खत्म हो गई, साहित्यक रूचि वाली पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन धीरे-धीरे बंद होता गया ऐसे में फेसबुक ने हिंदी के गंभीर मुद्दों को बहस के लिए एक मंच दिया है । वहाँ हर तरह के विषय पर बहस होती है । कई बार निष्कर्ष भी निकलता है| वहाँ हिंदी के सवालों पर टकराहट भी होती है जिसकी गूँज इंटरनेट से बाहर भी सुनाई देती है| अब अगर हम सोशल मीडिया के एक और उजले पक्ष को देखें तो वह विमर्श और संवाद का एक बेहतरीन मंच है ।
———— रवि सिंह भारती————-