कागज की कश्ती
कागज की कश्ती कितनी ही सजा लो,
एक दिन गल जाएगी यह जान लो,
यह पहचान लो…..
क्यों ? फिर तुम इतना मोह रखते हो,
क्यों ? फिर किसी को कुछ नहीं समझते हो,
क्यों ? बनते हो फिर इतने नादान,
तुम ज्ञानवान हो , हो तुम इंसान,
कागज की कश्ती……..
यह तन भी माटी का पुतला हैं,
गल जाएगा, ढल जाएगा ऐसी कला है,
फिर क्यों नहीं.. अरे
छोड़ो आपस के सब बैर,
सब अपने कोई नहीं गैर,
अभी भी नहीं हुई हैं देर,
सम्भल जाओ फिर नहीं खैर,
कागत की कश्ती……